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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तत्त्व-समुच्चय योगका ध्यान परिवर्तन होता रहता है वह पृथक्त्व-वितर्क-वींचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान है ॥२४-२६॥ चूंकि क्षीणकषाय साधु एक ही द्रव्य या द्रव्यपर्यायका किसी एक योग द्वारा ही ध्यान करता है, इसलिये तो एकत्व कहलाता है। और पूर्वोक्त प्रकारसे श्रुतकेवली साधु श्रुतके आधारसे विचार करता है, इसलिये विर्तक रूप है। एवं अर्थ, व्यंजन व योगोंका संक्रम नहीं होता इसलिये अवीचार है। तात्पर्य यह कि जिस ध्यानमें श्रुतचिंतन अर्थात् वितर्क तो होता है, किन्तु ध्यानका विषयभूत द्रव्य तथा चिन्तनका साधनभूत योग एक ही रहता है-उसका वीचार अर्थात् विपरिवर्तन नहीं होता--वह एकत्व-वितर्क-अवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान है ॥२७-२९॥ जिस ध्यान में न तो वितर्क है और न वीचार, किन्तु केवल सूक्ष्म काययोग होनेसे सूक्ष्म क्रिया मात्रका अवलंबन होता है, तथापि ध्यानका विषय समस्त द्रव्य और पर्याय एक ही समय होते हैं, वह सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति नामक तीसरा शुक्लध्यान है |॥३०॥ क्तिकरहित, वीचार रहित, क्रिया रहित, समस्तशीलोंकी पूर्णताका सहभावी, योगोंके निरोध सहित जो ध्यान होता है वह अन्तिम व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक चतुर्थ उत्तम शुक्लध्यान है । इस अन्तिम व अप्रतिपाति अर्थात् कभी न छूटनेवाले शुक्ल-ध्यानको योगों का निरोध तथा औदारिक, तैजस और कार्मण इन तीनों शरीरोंका नाश करनेवाला चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोगिकेवली करता है ।।३१-३२॥ इस प्रकार क्रोधादि कार्योंके साथ युद्ध करनेमें क्षपकके लिये ध्यान ही आयुध है । ध्यान-रहित क्षपक उसी प्रकार असफल होता है जैसे बिना आयुध का योद्धा ॥३३॥ जैसे रणभूमिमें रक्षा का साधन कवच है उसी प्रकार कषायोंके साथ युद्ध करनेमें ध्यान ही आत्मरक्षाका साधन है । और जिस प्रकार युद्ध में बिना कवचका योद्धा नाशको प्राप्त होता है, वैसे ही ध्यान किये बिना क्षपक अपनेको कषायोरो बचा नहीं सकता ॥३४॥ [शिवार्यकृत भगवती आराधना ] For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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