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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar ध्यान १२५ पांच अस्तिकाय, छह जीवनिकाय, छह द्रव्य तथा अन्य पदार्थों का स्वरूप जो आज्ञा अर्थात् शास्त्रोंके वचनों द्वारा ही ग्रहण किया जा सकता है यह सब 'आज्ञा-विचय' नामक धर्मध्यानमें चिन्तन करने योग्य है ॥१६॥ जैन मतानुसार कल्याणकी प्राप्तिमें उत्पन्न उपायों एवं उस प्राप्ति में होनेवाले अपायों अर्थात् विघ्न बाधाओं तथा जीवोंके शुभ और अशुभ परिणामों का विचार करना 'अपाय-विचय' नामक धर्मध्यान है ॥१७॥ ___ जीवोंके एक या अनेक भोंमें पुण्य और पाप रूप कर्मों के फलका, तथा कर्मोंकी उदय, उदीरण, संक्रमण, बन्ध व मोक्षरूप अवस्थाओंका चिन्तन 'विपाक-विचय' नामक धर्मध्यान में किया जाता है ।।१८॥ ___ अधोलोक, तिर्यग्लोक व ऊर्ध्वलोक इन तीनों लोकोंका उनके भेदोपभेदों तथा आकारादि संस्थानका एवं उन्हींकी आनुषंगिक बारह अनुप्रेक्षाओंका चिन्तवन करना 'संस्थान-विचय' नामक धर्मध्यान है ॥१९॥ वे बारह अनुप्रेक्षाएं इस प्रकार हैं-अध्रुव, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोध। इनका भी विचार संस्थान-विचय धर्मध्यानके भीतर करने योग्य है ॥२०॥ ४. शुक्लध्यान पूर्वोक्त प्रकारसे धर्मध्यान करके क्षपक जब लेश्याकी उज्ज्वलताको प्राप्त हो जाता है तब वह धर्म ध्यानका उल्लंघन कर शुक्लध्यान करना प्रारंभ करता है ।।२१।। शुक्ध्यान चार प्रकारका है—पहला पृथक्त्व-वितर्काचार, दूसरा एकत्ववितर्कवीचार, तीसरा सूक्ष्मक्रिया और चौथा समुच्छिन्नक्रिया ॥२२-२३॥ जिनका मोहनीय कर्म उपशान्त हो गया है ऐसे साधु जो अनेक द्रव्योंका अपने मन-वचन-कायरूप तीनों योगों द्वारा ध्यान करते हैं, इस कारण तो उसे पृथक्त्व कहते हैं। और चूंकि पूर्वगत श्रुतांगके अर्थ करनेमें कुशल श्रुतकेवली साधु वितर्क अर्थात् श्रुतके आधारसे विचार करते हैं, इसलिये यह ध्यान विर्तक रूप है। एवं अर्थ अर्थात् ध्येय द्रव्य या उसकी पर्याय विशेष, व्यंजन अर्थात् पदार्थको प्रकट करनेवाले वचन व योग अर्थात् मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति, इनमें सक्रम अर्थात् एकसे दूसरे पर ध्यानका परिवर्तन रूप वींचार होता है, इसलिए इस ध्यानको सूत्रमें वीचार भी कहा है । तात्पर्य यह कि जिस ध्यानमें द्रव्यसे पर्याय व पर्यायसे द्रव्य, एक श्रुतवचनसे दूसरे श्रुतवचन, एक योगसे दूसरे For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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