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मार्गणा-स्थान
दूसरेके मनमें स्थित पदार्थ जिसके द्वारा जाना जाय उस ज्ञानको मनःपर्यय ज्ञान कहते हैं । यह मनःपर्यय ज्ञान मनुष्यक्षेत्रमें ही होता है, बाहर नहीं ॥३४॥
____ जो ज्ञान सम्पूर्ण, समग्रः केवल, प्रतिपक्षरहित, सर्वपदार्थगत, और लोकालोकमें अन्धकार रहित होता है, उसे केवलज्ञान जानना चाहिये ।।३५।।
८ संयम मार्गणा अहिंसा, अचौर्य, सत्य, शील (ब्रह्मचर्य) और अपरिग्रह, इन पांच महाव्रतों का धारण करना; ईर्या, भाषा, एवणा, आदान-निक्षेपण और उत्सर्ग, इन पांच . समितियोंका पालना; चार प्रकारकी कषायोंका निग्रह करना; मन वचन कायरूप दण्डका त्याग करना; तथा पांच इंद्रियों को जीतना; इसको संयम कहते हैं ॥३६॥
९ दर्शन मार्गणा सत्तात्मक वस्तुओंके आकारका बोध किये बिना, तथा पदार्थोकी विशेषताओंको जाने बिना, जो आत्मावधानरूप सामान्य ग्रहण होता है उसे जैन सिद्धान्तमें दर्शन कहते हैं ॥३७॥
जो आत्मावधानं चक्षुरिन्द्रिय द्वारा प्रकाशित होता है, या जब पदार्थ आंखों द्वारा देखा जाता है तब उसे चक्षुदर्शन कहते हैं। और चक्षुके सिवाय दूसरी चार इन्द्रियों के अथवा मनके द्वारा जो प्रकाशित होता है उसको अचक्षुदर्शन कहते हैं ।।३८॥
अवधिज्ञान होनेके पूर्व समयमें अवधिक विषयभूत परमाणुसे लेकर महास्कन्धपर्यन्त मूर्तद्रव्यको जो देखता है उसको अवधिदर्शन कहते हैं ।। ३९ ।।
तीव्र, मंद व मध्यम आदि अनेक अवस्थाओंकी अपेक्षा तथा चंद्र, सूर्य आदि पदार्थों की अपेक्षा अनेक प्रकारके प्रकाश जगत्में परिमित क्षेत्रमें रहते हैं, किन्तु जो लोक और अलोक दोनों जगह प्रकाश करता है, ऐसे प्रकाश को केवल दर्शन कहते हैं ।। ४० ॥
१० लेश्या मार्गणा लेश्या के गुणको (स्वरूपको) जाननेवाले गणधरादि देवोंने लेश्याका स्वरूप ऐसा कहा है कि जिसके द्वारा जीव अपने को. पुण्य और पापसे लिप्त करे, पुण्य और पापके अधीन करे, उसको लेश्या कहते हैं ॥४१॥
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