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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १२० तत्त्व-समुरचय कषायोदयसे अनुरक्त योग प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं। इसलिये दोनों का कार्य प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश, इन चार प्रकारका बंध करना कहा गया है ॥४२।। लेश्याओं के नियमसे ये छह निर्देश अर्थात् भेदों के नाम हैं - कृष्ण लेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या (पीतलेश्या), पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या ॥४३।। अशुभ लेश्या सम्बन्धी तीव्रतम, तीव्रतर और तीव्र, ये तीन स्थान, तथा शुभलेश्या सायन्धी मन्द, मन्दतर और मन्दतम, ये तीनस्थान होते हैं, क्योंकि कृष्ण लेश्यादि छह लेश्याओंके शुभस्थानों में जघन्यसे उत्कृष्टपर्यन्त और अशुभ स्थानों में उत्कृष्टसे जघन्यपर्यन्त प्रत्येकमें षट्स्थानपतित हानिवृद्धि होती है ।।४४॥ कृष्ण आदि छह लेश्यावाले छह पथिक बनके मध्यमें मार्गसे भ्रष्ट होकर फलोंसे पूर्ण किसी वृक्षको देखकर अपने अपने मनमें निम्न प्रकार विचार करते हैंकृष्णलेश्यावाला विचार करता है कि मैं इस वृश्चको मूलसे उखाड़कर इसके फलोंका भक्षण करूंगा । नीललेश्यावाला विचारता है कि मैं इस वृक्षको स्कन्धसे काटकर इसके फल खाऊंगा । कापोत लेश्यावाला विचार करता है कि मैं इस क्षकी बड़ी बड़ी शाखाओं को काटकर इसके फलोंको खाऊंगा। पीतलेश्यावाला विचार करता है कि मैं इस वृक्षकी छोटी उपशाखाओं को काटकर इसके फलों का खाऊंगा। पद्मलेश्या वाला विचारता है कि मैं इस वृक्षके फलों को तोड़कर खाऊंगा । शुक्ल लेश्यावाला विचार करता है कि मैं इस वृक्ष के स्वयं टूटकर गिरे हुए फलोको खाऊंगा। इस प्रकार जो मनपूर्वक वचन और कार्यकी प्रवृत्ति होती है वह लेश्याका कर्भ है ।।४५-४६।। तीन क्रोध करनेवाला हो, वैरको न छोड़े, लड़ाकू स्वभाव हो, धर्म और दयासे रहित हो, दुष्ट हो, जो किसी के भी वश न हो, ये सब कृष्ण लेश्या वालेके लक्षण हैं ॥४७॥ ___काम करनेमें मन्द हो, बुद्धिविहीन हो, कला-नातुर्यसे रहित हो, और स्पर्शनादि पांच इन्द्रियों के विषयों का लोलुपी हो, ये संक्षेपमें नीललेश्याके लक्षण कहे गये हैं ।।४८|| दूसरे के ऊपर क्रोध करता है, दूसरोकी निन्दा करता है, अनेक प्रकारसे दूसरोंको दोष लगाता है स्वयं बहुत शोकाकुलित तथा भयग्रस्त होता है, कार्य अकार्यका कुछ विचार नहीं करता, ये सब कपोत लेश्या वाले के लक्षण हैं ॥४९॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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