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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११८ तत्त्व-समुच्चय लोभ कषाय भी चार प्रकारका होता है--क्रिमिरोगके समान, चक्रमलं (रथ आदिकके पहियोंके भीतरकी ओंगन) के समान, शीर मलके समान, और हल्दीके समान । यह भी क्रमसे नरक, तिर्यक, मनुष्य व देव गतिका उत्पादक है ॥ २६ ॥ नरक, तिर्थञ्च, मनुष्य तथा देवगतिमें उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें क्रमसे क्रोध, मान, माया और लोभका उदय होता है। अथवा अनियम भी होता है ॥२७॥ ७ ज्ञान मार्गणा ज्ञानके पांच भेद हैं-मति, श्रुति, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल । इनमें आदिके चार ज्ञान क्षायोपशमिक हैं, और केवलज्ञान क्षायिक है ।।२८।। इंद्रिय और आनन्द्रिय ( मन ) की सहायतासे अभिमुख और नियमित पदार्थका जो ज्ञान होता है उसको आभिनिबोधिक कहते हैं। इसमें प्रत्येक के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, ये चार भेद हैं ॥२९॥ पदार्थों और इन्द्रियोंके योग्य क्षेत्रमें अवस्थानरूप संयोग होनेपर नियमसे अवग्रहरूप मतिज्ञान होता है । अबग्रहज्ञानके द्वारा ग्रहण किये गये पदार्थमें विशेष जानने की आकांक्षा रूप ईहा मतिज्ञान होता है ॥३०॥ ईहा ज्ञानके अनन्तर वस्तु के विशेष चिन्होंको देखकर जो उसका विशेष निर्णय होता है उसको अवाय कहते हैं । जिसके द्वारा निर्गीत वस्तुका कालान्तरमें भी विस्मरण न हो उसको धारणा ज्ञान कहते हैं ॥३१॥ मतिज्ञानके विषयभूत पदार्थके आधारसे किसी दूसरे पदार्थके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं। यह ज्ञान नियमसे मतिज्ञान पूर्वक होता है। इस श्रुतज्ञानके अक्षरात्मक अनक्षरात्मक इस प्रकार, अथवा शब्दजन्य और लिङ्गजन्य इस प्रकार दो भेद हैं । इनमें मुख्य शब्दजन्य श्रुतज्ञान है ॥३२॥ __ द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भावकी अपेक्षासे जिसके विषयकी सीमा हो (किन्तु जो इंद्रियोंकी सहायताके विना साक्षात् आत्म-विशुद्धि द्वारा हो) उसको अवधिज्ञान कहते हैं। इसीलिये परमागममें इसको सीमाज्ञान कहा है। इस ज्ञानके जिनेंद्रदेवने दो भेद कहे हैं-एक भवप्रत्यय, दूसरा गुणप्रत्यय ॥३३॥ जिसका चिन्तयन किया हो, अथवा जिसका चिन्तयन नहीं किया गया, अथवा वर्तमानमें जिसका आधा चिन्तवन किया है, इत्यादि अनेक मेदस्वरूप For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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