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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मार्गणा-स्थान शक्यताके विचारसे कहना 'इन्द्र जम्बूद्वपिको पलट सकता है, आगमके अनुसार किसीको पापकर्मसे रोकतोके वचन कहना, पल्यको उपमानुसार मापविशेषको पल्यौपम कहना, ये उक्त दश प्रकार के जनपदादि सत्यवचनके क्रमशः दश दृष्टान्त है ।।१६.१७॥ आमन्त्रणी, आज्ञापनी, याचनी, आपृच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, संशयवचनी, इच्छानुलोम्नी और अनक्षरगता, ये नव प्रकार की अनुभयात्मक भाषा हैं, क्योंकि इनके सुननेवालेको व्यक्त और अव्यक्त दोनों ही अंशों का ज्ञान होता है ॥१८-१९॥ औदारिक, वैक्रियिक, आहारक व तैजस नामकर्म के उदयसे होनेवाले चार शरीरोंको कर्म कहते हैं। और कार्मण शरीर नामकर्मके उदयसे होनेवाले ज्ञानावरणादिक आठ कर्मों के समूहको कार्मण शरीर कहते हैं ॥२०॥ ५ वेदमार्गणा पुरुष, स्त्री और नपुंसक वेदकर्मके उदयसे भावपुरुष, भावा व भाव नपुंसक होता है । और नामकर्मके उदयसे द्रव्यपुरुष, द्रव्यस्त्री व द्रव्यनपुंसक होता है। यह भाववेद और द्रव्यवेद प्रायः करके समान होता है, परन्तु कहीं विषम भी होता है । (जैसे, नपुंसक वेदका उदय नारकी व सम्मूर्छन द्रव्य नपुंसक के अतिरिक्त पुरुष शरीरी व स्त्री शरीरी जीवों में भी होता है ) ॥२१॥ ६ कषायमार्गणा जीवके सुख दुःख आदि अनेक प्रकार के धान्यको उत्पन्न करनेवाला होनसे तथा जिसकी संसाररूप मर्यादा अत्यन्त दुर है ऐसे कर्मरूपी क्षेत्रका यह कर्षण करता है, इसलिये इसको कषाय कहते हैं ॥२२॥ क्रोध चार प्रकारका होता है-एक पत्थर की रेखाके समान, दूसरा पृथ्वीकी रेखाके समान, तीसरा धूलिरेखाके समान और चौथा जलरेखाके समान । ये चारों प्रकारके क्रोध क्रमसे, नरक, तिर्यक्, मनुष्य तथा देवगतिमें उत्पन्न करानेवाले हैं ।। २३ ॥ मान भी चार प्रकार का होता है--पत्थरके समान, हड्डीके समान, काठके समान, तथा बेतके समान। ये चार प्रकारके मान भी क्रमसे नरक, तिर्यक, मनुष्य तथा देव गतिके उत्पादक हैं ।। २४ ।। माया भी चार प्रकारकी होती है--वासकी जड़के समान, मेढेके सींगके समान, गोमूत्रके समान और खुरपाके समान । यह चार प्रकारकी माया भी झमसे जीवको नरक, तिर्थक्, गनुष्य और देवगतिमें ले जाती है ।।२५।। For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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