________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
Achar
कर्म प्रकृति
८ अन्तरायकर्म-५ अन्तरायकर्मके संक्षेपतः पांच भेद कहे गये हैं : दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय तथा वीर्यान्तराय ॥ १५ ।।
इसप्रकार आठ कर्म और उनकी उत्तर प्रकृतियोंका वर्णन किया। अब उनके प्रदेश, क्षेत्र, काल तथा भावका वर्णन सुनिये ।। १६॥
कर्म-प्रदेश आठों कर्मों के सब मिलाकर अनंत प्रदेश हैं, और उनकी संख्याका प्रमाण संसारके अभव्य जीवों की संख्यासे अनंत गुणा है और सिद्ध भगवानोंकी संख्याका अनन्तवां भाग है ।। १७ ॥
कर्म-क्षेत्र समस्त जीवों के कर्म संपूर्ण लोककी अपेक्षासे छहों दिशाओं में सब आत्म प्रदेशोंके साथ सब तरहसे बंधते रहते हैं ।। १८ ॥
कर्म-स्थिति उन आठ कर्मों में से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, और अंत. राय कर्मों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी, और उत्कृष्ट स्थिति तीस कोडाकोड़ी सागरकी कही गई है ॥ १९-२०
मोहनीय कर्मकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूतकी और उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की है ॥ २१ ॥
आयु कर्मकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर तककी है ॥ २२ ॥
नाम और गोत्र, इन दोनों कर्मोंकी जघन्य स्थिति आठ अन्तर्मुहूर्तकी है, और उत्कृष्ट आयु बीस कोडाकोड़ी सागरकी है ॥ २३ ॥
कामोंका अनुभाग सब कर्मस्कंधोंके अनुभाग (परिणाम अथवा रस देनेकी शक्ति) का प्रमाण सिद्धगति प्राप्त अनंत जीवोंकी संख्याका अनन्तवां भाग है, किन्तु यदि सर्व कर्मों के परमाणुओं की अपेक्षासे कहें तो उनका प्रमाण यावन्मात्र जीवोंकी संख्यासे भी अधिक आता है ॥ २४ ॥
इस प्रकार इन कर्मों के रसोंको जानकर मुमुक्षु जीव ऐसा प्रयत्न करे जिससे कर्मका बंध न हो और पूर्व में बांधे हुए कर्मों का भी क्षय होता जाय । ७।३।५० ॥२५॥
[ उत्तराध्ययन सूत्र-३३]
For Private And Personal Use Only