________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
तत्त्व-समुच्चय
है। तथा हास्य, ति, अरति, खेद, भय, ग्लानि, और वेदके भेदसे सात प्रकार तथा वेदके भी पुरुष, स्त्री व नपुंसक भेदसे नौ प्रकारका नोकपायोत्पन्न कर्म है ॥११॥
५ आयुकर्म-४ नरकायु, तिर्यगायु, मनुष्यायु और देवआयु, ये चार भेद आयुकर्मके हैं ॥१२॥
६ नामकर्म-९३ नाम कर्मके दो प्रकार हैं--शुभ, और अशुभ । इन दोनोंके भी बहुतसे उपभेद हैं ॥ १३ ॥
[ नाम कर्मके ब्यालीस (४२) भेद, तथा उपभेदोंकी अपेक्षासे तेरानवे (९३) भेद, इस प्रकार हैं
१. चार गति (नरक, तिर्यक, मनुष्य और देव); २. पांच जाति (एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय); ३. पांच शरीर (औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण); ४. औदारिकादि पांचों शरीरके पांच बन्धन व ५. पांच संघात; ६. छह शरीरसंस्थान (समचतुरस्त्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्ज, वामन और हुण्ड); ७. तीन शरीराङ्गोपांग (औदारिक, वैक्रियिक और आहारक) ८. छह संहनन ( वन-वृषभ-नागच, नाराच-नाराच, नाराच, अर्धनासच, कीलित और असंप्राशास्त्रपाटिका); ९. पांच वर्ण (कृष्ण, नील, रक्त, हरित और शुक्ल); १०. दो गंध ( सुगन्ध और दुर्गंध); ११. पांच रस (तिक्त, कटु, कषाय, आम्ल और मधुर); १२. आठ स्पर्श ( कठोर, मृदु, गुरु, लघु, स्निग्ध, रूक्ष, शीत और उष्ण); १३. चार आनुपूर्वी ( नरकगतियोग्य तिर्यग्गतियोग्य, मनुष्यगतियोग्य और देवतियांग्य); १४. अगुरुलघु, १५. उपघात; १६. परघात; १७. उच्छ्वास; १८. आताप, १९, उद्योत, २०. दो विहायोगति (प्रशस्त और अप्रशस्त); २१. त्रस २२. स्थावर, २३. बादर, २४. सूक्ष्म, २५. पर्याप्त, २६. अपर्याप्त, २७. प्रत्येक शरीर, २८. साधारण शरीर, २९. स्थिर, ३०. अस्थिर, ३१. शुभ, ३२. अशुभ, ३३. सुभग, ३४. दुर्भग, ३५. सुस्वर, ३६. दुःस्वर, ३७. आदेय, ३८.अनादेय, ३९. यश कीर्ति, ४०. अयशःकीर्ति ४१. निर्माण और ४२. तीर्थकर ।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तगय ये चार तो जीवके गुणोंका घात करनेवाले होनेसे उनकी समस्त उत्तर प्रकृतियां अशुभ ही है ।
७ गोत्रकर्म-२ गोत्रकर्म के दो भेद हैं :--उच्च और नीच । जाति, कुल, धन, प्रभुता, रूप, बल, विद्या और तपकी श्रेष्ठताके अनुसार उच्च गोत्र आठ प्रकारका है, तथा इनकी हीनताके अनुसार नीच गोत्र भी आठ प्रकारका है ॥ १४ ॥
For Private And Personal Use Only