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: ११ : गुणस्थान
दर्शन मोहनीयादि कर्मों की उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थानुसार होनेवाले जिन परिणामोंसे युक्त जो जीव देखे जाते हैं उन जीवोंको सर्वज्ञ देवने उसी गुणस्थानवाला और परिणामोंको गुणस्थान कहा है ॥ १ ॥
मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, आवरत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत अप्रमत्तविरत, अर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशांतमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली और अयोगकेवली, ये चौदह जीवसमास (गुणस्थान) हैं। और इनसे अपर सिद्ध जीव हैं।। २-३ ।।
[ यहाँ चौथे गुणस्थानके साथ अविरतशब्द अन्त्यदीपक है, इसलिये पूर्व के तीन गुणस्थानों में भी अविरतभाव समझना चाहिये । तथा छठे गुणस्थानके साथका विरत शब्द आदि दीपक है, इसलिये यहांसे लेकर सम्पूर्ण गुणस्थान विरत ही होते हैं, ऐसा समझना।]
मिथ्यात्व मिथ्यात्वप्रकृतिके उदयसे तत्त्वार्थ के विपरीत श्रद्धानको मिथ्यात्व कहते हैं । इसके पांच भेद हैं : एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान ।। ४ ॥
मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे उत्पन्न होनेवाले मिथ्या परिणामों का अनुभव करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानवाला हो जाता है । उसको जिस प्रकार पित्तज्वरसे युक्त जीवको मीठा रस भी अच्छा मालूम नहीं होता, उसी प्रकार यथार्थ धर्म रुचिकर नहीं लगता ॥ ५ ॥
२ सासादन सम्यक्त्वरूपी रत्नपर्वतके शिखरसे गिरकर जो जीव मिथ्यात्वरूप भूमिके सम्मुख हो चुका है, अतएव जिसने सम्यक्त्वका नाश कर दिया है (किन्तु मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं किया है) उसको सासन या सासादन गुणस्थानवर्ती कहते हैं ॥ ६ ॥
३ सम्यक् मिथ्यात्व जिसका आत्माके गुणको सर्वथा घातनेका कार्य दूसरी सर्वघाति प्रकृतियोंसे विलक्षण जातिका है उस जात्यन्तर सर्वघाति सम्यामिथ्यात्व प्रकृतिके उदयसे केवल
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