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भावना
जिस प्रकार समुद्रमें गिरे हुए रत्नका फिर पाना अत्यंत दुर्लभ है, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय प्राप्त करना महान् दुर्लभ है। उस मनुष्यगतिमें ही (शुभ) ध्यान होता है, और उसी मनुष्यगतिसे ही निर्वाण अर्थात् मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥४२॥
इस प्रकार इस मनुष्य गति को दुर्लभसे भी अति दुर्लभ जानकर और उसी प्रकार दर्शन, ज्ञान तथा चरित्र को भी दुर्लभ से दुर्लभ समझकर दर्शन, ज्ञान, चरित्र, इन तीनों का बड़ा आदर कीजिये ॥४३॥
१२ धर्म-भावना जो समस्त लोक-अलोक को त्रिकालगोचर समस्त गुणपर्यायोंसे संयुक्त प्रत्यक्ष जानता है वही सर्वज्ञ देव है ॥४४॥
सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट धर्म दो प्रकार का है-एक संगासक्त अर्थात् गृहस्थों का, और दूसरा असंग अर्थात् मुनियोंका। इनमें प्रथम गृहस्थका धर्म बारह भेद रूप है, और दूसरा मुनिधर्म दश भेदरूप है ॥४५॥
इन अनुप्रेक्षाओं की स्वामिकुमारने जिन-वचनोंकी भावनाके लिये तथा चंचल मनका अवरोध करनेके लिये परम श्रद्धाके साथ रचना की है ।।४६॥
इन बारह अनुप्रेक्षाओंका जिनागमके अनुसार वर्णन किया गया है। जो इनका पाठ करेगा या पाठको दूसरोंसे सुनेगा, वह परम सुख पावेगा ॥४७॥
[स्वामिकार्तिकेयकृत अनुप्रेक्षा]
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