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तत्त्व-समुच्चय
. जो मुनि इन्द्रियों के विषयोंसे विरक्त होकर मनोहर इन्द्रिय विषयोंसे आत्मा को सदैव संवृत्त रखते हैं उसके स्पष्ट संवर भावना है ॥३२॥
९ निर्जरा भावना ज्ञानी और निरहंकार जीवके निदानरहित व वैराग्यभावना सहित बारह प्रकार तप करनेसे कर्मोकी निर्जरा होती है ।।३३।।
समस्त ज्ञानावरणाटिक अष्ट काँकी फलदायिनी शक्तिके विपाक अर्थात् उदयको ही अनुभाग कहते हैं | कर्मों का उदयमें आकर अनन्तर ही सड़ना अर्थात् झड़ना या क्षरना होने लगता है, इसीको कर्मोंकी निर्जरा जानिये ॥३४॥
यह निर्जरा दो प्रकारकी है--एक तो स्वकाल प्राप्त और दूसरी तपस्याकृत । इनमें पहली अर्थात् स्वकाल प्राप्त निर्जरा तो चारों ही गतियों के जीवों की होती है, किन्तु दूसरी अर्थात् तपकृत निर्जरा व्रतयुक्त जीवोंकी ही होती है ।।३५।।
जो मुनि समताभावरूप सुख में लीन होकर आत्मा का स्मरण करता है तथा इन्द्रियों और कषायोंको जीत लेता है, उसके उत्कृष्ट निर्जरा होती है ॥३६॥
१० लोक भावना समस्त आकाश अनन्त है। उसके ठीक मध्यमे लोक स्थित है । उसे न किसी हरि हरादि देवने बनाया है और न धारण किया है ॥३७॥
जहां जीव आदिक पदार्थ देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं। उसके शिखर पर अनन्त सिद्ध विराजमान हैं ॥३८||
लोकमें जो जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये छह द्रव्य हैं वे समय समय परिणमन अर्थात् परिवर्तन करते रहते हैं। उन्हींके परिणमनसे लोकका भी परिणमन होता है, ऐसा जानिये ॥३९॥
इस प्रकार लोकस्वरूपका जो कोई एक मात्र उपशम भावसे ध्यान करता है, वह कर्मसमूहों का नाश करके उसी लोकका शिखामणि अर्थात् सिद्ध हो जाता है ॥४०॥
११ बोध दुर्लभ भावना यह जीव अनादि कालसे अनन्तकाल तक संसारकी निगोद योनियों में वास करता है, जहां एक शरीरमें अनन्त जीवोंका वास पाया जाता है। वहांसे निकलकर वह पृथ्वीकायादिक पर्याय धारण करता है ॥४१॥
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