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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भावना भले पवित्र सुरस सुगंध मनोहर द्रव्य भी इस देहसे स्पर्श या उसमें प्रवेश करके अत्यंत दुर्गन्धी हो जाते हैं ॥ २२ ॥ ___जो भव्य परदेह अर्थात् स्त्री आदि के शरीरसे विरक्त होकर अपने देहमें भी अनुराग नहीं करता और आत्मस्वरूप में अनुग्क्त होता है उसकी अशुचि भाषना सार्थक है ॥ २३ ॥ ७ आस्रव भावना मन, वचन और काय योग हैं, जो जीव प्रदेशों के स्पंदन-विशेष रूप हैं वे ही आस्रव हैं, जो मोहकर्म के उदय रूप मिथ्यात्व व कषाय सहित भी होते हैं और मोह के उदय से रहित भी होते हैं ॥ २४ ॥ कर्म, पुण्य तथा पाप रूप से दो प्रकार का होता है। उसके कारण भी दो प्रकारके हैं--प्रशस्त और इतर अर्थात् अप्रशस्त । मंदकषायरूप परिणाम प्रशस्त और तीत्र कषायरूप परिणाम अप्रशस्त कर्मास्रव के कारण हैं ॥ २५ ॥ सर्वत्र शत्रु तथा मित्रसे प्यारे हितरूप वचन बोलना, और दुर्वचन सुनकर भी दुर्जन को क्षमा करना, तथा सर्व जीवोंके गुण ही ग्रहण करना, ये मंदकषायी जीवोंके उदाहरण हैं ।। २६ ॥ ___ अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों के भी दोष कहने-करनेका स्वभाव, तथा दीर्घ काल तक वैर धारण करना, ये तीवकषायी जीवोंके चिन्ह हैं ॥ २७ ॥ जो पुरुष पूर्वोक्त मोहके उदयसे उत्पन्न मिथ्यात्वादिक परिणामोंको छोड देता है, और उपशम अर्थात् शान्त परिणाम में लीन होता है तथा इन मिथ्यास्वादिक भावोंको हेय जानता है, उसके आस्रवानुप्रेक्षा होती है ॥ २८ ॥ ८ संवर भावना सम्यक्त्व, देशव्रत, महावत तथा कषायजय एवं योगों का अभाव, ये सत्र संवर हैं ॥ २९॥ मन, वचन और कायकी गुप्ति; ईया, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापन, ये पांच समिति; उत्तम क्षामादि दशलक्षण धर्म; अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा; क्षुधा आदि बाईस परीषहका जीतना; सामायिक आदि उत्कृष्ट पांच प्रकारका चारित्र; ये विशेषरूप से संवरके कारण हैं ॥३०॥ जो पुरुष संवरके इन कारणोंको विचारता हुआ भी सदाचरण नहीं करता वह दुःख से ततायमान हुआ दीर्घ काल तक संसारमें भ्रमण करता है ॥३१॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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