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भावना
भले पवित्र सुरस सुगंध मनोहर द्रव्य भी इस देहसे स्पर्श या उसमें प्रवेश करके अत्यंत दुर्गन्धी हो जाते हैं ॥ २२ ॥ ___जो भव्य परदेह अर्थात् स्त्री आदि के शरीरसे विरक्त होकर अपने देहमें भी अनुराग नहीं करता और आत्मस्वरूप में अनुग्क्त होता है उसकी अशुचि भाषना सार्थक है ॥ २३ ॥
७ आस्रव भावना मन, वचन और काय योग हैं, जो जीव प्रदेशों के स्पंदन-विशेष रूप हैं वे ही आस्रव हैं, जो मोहकर्म के उदय रूप मिथ्यात्व व कषाय सहित भी होते हैं और मोह के उदय से रहित भी होते हैं ॥ २४ ॥
कर्म, पुण्य तथा पाप रूप से दो प्रकार का होता है। उसके कारण भी दो प्रकारके हैं--प्रशस्त और इतर अर्थात् अप्रशस्त । मंदकषायरूप परिणाम प्रशस्त और तीत्र कषायरूप परिणाम अप्रशस्त कर्मास्रव के कारण हैं ॥ २५ ॥
सर्वत्र शत्रु तथा मित्रसे प्यारे हितरूप वचन बोलना, और दुर्वचन सुनकर भी दुर्जन को क्षमा करना, तथा सर्व जीवोंके गुण ही ग्रहण करना, ये मंदकषायी जीवोंके उदाहरण हैं ।। २६ ॥
___ अपनी प्रशंसा करना, पूज्य पुरुषों के भी दोष कहने-करनेका स्वभाव, तथा दीर्घ काल तक वैर धारण करना, ये तीवकषायी जीवोंके चिन्ह हैं ॥ २७ ॥
जो पुरुष पूर्वोक्त मोहके उदयसे उत्पन्न मिथ्यात्वादिक परिणामोंको छोड देता है, और उपशम अर्थात् शान्त परिणाम में लीन होता है तथा इन मिथ्यास्वादिक भावोंको हेय जानता है, उसके आस्रवानुप्रेक्षा होती है ॥ २८ ॥
८ संवर भावना सम्यक्त्व, देशव्रत, महावत तथा कषायजय एवं योगों का अभाव, ये सत्र संवर हैं ॥ २९॥
मन, वचन और कायकी गुप्ति; ईया, भाषा, एषणा, आदाननिक्षेपण और प्रतिष्ठापन, ये पांच समिति; उत्तम क्षामादि दशलक्षण धर्म; अनित्य आदि बारह अनुप्रेक्षा; क्षुधा आदि बाईस परीषहका जीतना; सामायिक आदि उत्कृष्ट पांच प्रकारका चारित्र; ये विशेषरूप से संवरके कारण हैं ॥३०॥
जो पुरुष संवरके इन कारणोंको विचारता हुआ भी सदाचरण नहीं करता वह दुःख से ततायमान हुआ दीर्घ काल तक संसारमें भ्रमण करता है ॥३१॥
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