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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org : ८ : परीषह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उत्तराध्ययन सूत्र ( सुधर्मस्वामीने जम्बूस्वामीको उपदेश दिया -- ) हे जम्बू ! परीषदोंके जिस विभागका भगवान् काश्यपने वर्णन किया है, मैं तुम्हें क्रमसे कहता हूँ । तुम उसे ध्यान से सुनो ॥ १ ॥ १. क्षुधा परीषह अत्यंत उग्र भूख से शरीर के पीड़ित होने पर भी आत्म शक्तिधारी तपस्वी भिक्षु किसी भी वनस्पति सरी श्री वस्तु को न स्वयं तोड़े और न दूसरोंसे तुड़वाने; स्वयं न पकावे और न दूसरों से पकवावे || २ || शरीर के सभी अंग कोएकी टांग जैसे कुश, और धमनियों (नस) से पूर्ण क्यों न हो जाय, फिर भी अन्नपानकी मात्राको जाननेवाला साधु दीनता रहित मनसे गमन करे || ३ ॥ २. तृषा परीषह कड़ी प्यास लगी हो फिर भी अनाचार से भयभीत और संयम की लज्जा रखनेवाला भिक्षु ठंडा ( सचित्त ) पानी न पिये, किन्तु मिल सके तो अचित्त ( जीव रहित उष्ण ) पानीकी ही शोध करे | || ४ || लोगों के आवागमन से रहित मार्गमें यदि प्याससे बेचैन हो गया हो, मुँह सूख गया हो, तो भी साधु मनमें दैन्य भाव न लाकर उस परीषदको प्रसन्नता से सहन करे | || ५ || ३. शीत परीषह ग्राम ग्राम चिचरनेवाले और हिंसादि व्यापारों के पूर्ण त्यागी रूक्ष (सूखे ) शरीरधारी भिक्षुको यदि कदाचित् शति ( ठंड ) लगे तो वह जैनशासन के नियमोंको याद करके कालातिक्रम ( व्यर्थ समय यापन ) न करे | || ६ || शीतके निवारण योग्य स्थान नहीं है, और शरीरकी रक्षा योग्य कोई उपकरण भी नहीं है, इसलिए आग से ताप लूँ, ऐसा विचार भिक्षुक कभी न करे | ॥ ७ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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