SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८८ तत्त्व-समुच्चय ५. प्रत्याख्यान नाम-स्थापना-द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव, इन छहोमें शुभ मन वचन कायसे आगामी काल के लिये अयोग्यका त्याग करना, अर्थात् अयोग्य नाम नहीं करूंगा, न कहूंगा और न चितवन करूंगा इत्यदि त्यागको प्रत्याख्यान जानना ॥२७॥ ६. विसर्ग दिनमें होनेवाली देवसिक आदि निश्चय क्रियाओंमें, अत्भाषित पच्चीस, सत्ताईस व एकसौ आठ उच्छ्वास इत्यादि परिमाणसे कहे हुए अपने अपने काल में, दया क्षमा सम्यग्दर्शन, अनंतज्ञानादिचतुष्टय इत्यादि जिनगुणों की भावना सहित देहमें ममत्वका छोड़ना, यह कायोत्सर्ग है ।।२८॥ दो महिने, तीन महिने या चार महिने पश्चात् उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्यरूप व प्रतिक्रमण सहित दिनमें उपवास साहेत किया गया जो अपने हाथसे मस्तक दाढी मूंछ के केशोंका उपाड़ना, वह लौंचनामा मूलगुण है ॥२९॥ २-अचेलकत्व __ कास, रेशम व रोम के बने हुए वस्त्र, मृगछाला आदि चर्म, वृक्षादिकी छालसे उत्पन्न सन आदिके टाट, अथवा पत्ता तृण आदि, इनसे शरीरका आच्छादन नहीं करना, हार आदि आभूषणोंसे भूषित न होना, संयमके विनाशक द्रव्योंसे रहित होना, ऐसा जगत् पूज्य निग्रंथरूप अचेलकवत मूलगुण है ॥३०॥ ३-अस्नान जलसे नहानेरूप स्नान, तथा उबटन, चंदनादिलेपन आदि क्रियाओंको छोड़ देनेसे जल्ल (सर्वोग प्रच्छादक मल) वमल्ल (अंगकदेश-प्रच्छादक मल) तथा स्वेद (पसीना) द्वारा समस्त शरीरका मलिन हो जाना अस्नान नामा महान् गुण मुनिके है जिससे कषाय निग्रहरूप प्राणसंयम तथा इन्द्रियनिग्रहरूप इंद्रियसंयम, इन दोनों की रक्षा होती है ॥३१॥ ४-क्षितिशयन जीव-बाधाराहत, अल्पसंस्तरहित (या अल्प संस्तरयुक्त ) असंयमीके गमनरहित प्रच्छन्न भूमि प्रदेश में दंडके समान, अथवा धनुषके समान, एक पार्श्वमे सोना, वह क्षिति-शयन मूलगुण है ॥३२॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy