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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Achar मान-धर्म [२] ७ नरम आदि आठ प्रकार के सुखरूप अथवा दुःखरूप स्पर्श में हर्ष-विषाद नहीं करना, यह स्पर्शन इन्द्रियनिरोध व्रत है ।। २१ ॥ आवश्यक-६ सामायिक, चतुर्विंशतिम्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग, ये छह आवश्यक सदा करना चाहिये ।। २२ ॥ १. समायिक देहधारनेरूप जीवन, और प्राणवियोगरूप मरण, इन दोनों में, तथा वांछित वस्तुकी प्राप्तिरूप लाभ, व इच्छितवस्तुकी अप्राप्तिरूप अलाममें; इष्ट अनिष्टके संयोग-वियोग में, स्वजन मित्रादिक बंधु, शत्रु दुष्टादिक अरि इन दोनों में सुखदुःखमें वा भूख, प्यास, शीत, उष्ण आदि बाधाओं में रागद्वेष रहित समान परिणाम होना, उसे सामायिक कहते हैं ॥२३॥ २. स्तव ऋषभ अजित आदि चौवीस तीर्थकरोंके नाम उच्चारण करना, उन नामोंकी निरुक्ति अर्थात् नामके अनुसार अर्थ करना, उनके असाधारण गुणोंकी प्रशंसा करना, उनके चरण-युगलको पूजकर मन-वचन-कायकी शुद्धतासे उन्हें प्रणाम करना, इसे चतुर्विशस्तव जानना चाहिये ।।२४॥ ३. वन्दन अरहंत प्रतिमा, सिद्धप्रतिमा, अनशनादि बारह तपोंसे अधिक तपगुरु, अंगपूर्वादिरूप आगमज्ञानसे अधिक श्रुतगुरु; व्याकरण, न्याय आदि ज्ञानी विशेषतारूप गुणों से अधिक गुणगुरु; अपनेको दीक्षा देनेवाले दीक्षागुरु और बहुतकाल के दीक्षित राधिकगुरु, इनको कायोत्सर्गादिक सिद्धमाक्त गुरुभक्तिरूप क्रियाकर्मसे, तथा श्रुतभाक्त आदि क्रियाके बिना मस्तक नमाने रूप मुंडवंदनाकर मन-वचन-कायकी शुद्धिसे नमस्कार करना, यह वंदना नामक मूलगुण है ॥२५॥ ४. प्रतिक्रमण आहार शरीरादि द्रव्यमें, वसतिका शयन आसन आदि क्षेत्रमें, प्रातःकाल आदि कालमें, चित्तके व्यापाररूप भाव (परिणाम) में किये गये दोषको शुभ मन वचन कायसे शोधना, अपने दोषकी स्वयं निन्दा गर्दा करना, यह प्रतिक्रमण गुण है ॥२६॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020812
Book TitleTattva Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBharat Jain Mahamandal
Publication Year1952
Total Pages210
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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