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मुनि-धर्म [२]
मूलगुणों के पालन द्वारा निर्मल हुए सब संयमियों को मस्तक नमाकर वंदना करके इस लोक और परलोकम हितकारी मूलगुणोंको कहता हूँ ॥१॥
जिनेन्द्र भगवान् द्वारा निर्दिष्ट पांच महाव्रत, पांच समितियां, पांच इन्द्रियोंके निरोध, छह आवश्यक, लौंच, आचेलक्य, अस्नान, पृथिवीशयन, अदंतघर्षण, स्थितिभोजन, और एकभक्त, ये ही जैन साधुओंके अहाईस मूलगुण हैं ।।२-३॥
महाव्रत-५ हिंसाका त्याग, सत्य, चोरीका त्याग, ब्रह्मचर्य, और परिग्रहका त्याग, ये पाँच महावत कहे गये हैं ॥४॥
१. अहिंसा काय, इंद्रिय, गुणस्थान, मार्गणास्थान, कुल, आयु, वयोनि-इनमें सब जीवों को जानकर उठने बैठने आदि क्रियाओं में हिंसा आदिके त्यागको अहिंसा महावत कहते हैं ॥५॥
२. सत्य राग, द्वेष, मोह आदि कारणोंसे असत्य वचनको तथा दूसरेको दुखदायक सत्य वचनको छोड़ना और द्वादशांग शास्त्रके अर्थ कहने में अयथार्थ वचनका निवारण करना सत्यमहाव्रत है ॥६॥
३. अचौर्य ग्राम आदिमें पड़ा हुआ, भूला हुआ, रखा हुआ, इत्यादिरूप थोड़ा या बहुत द्रव्य, तथा दूमरेके द्वारा संचित परद्रव्यको प्रहण नहीं करना, यह अदत्त-त्याग अर्थात् अचौर्य महाव्रत है ॥७॥
४. ब्रह्मचर्य वृद्धा, बाला व युवती स्त्रियोंको अथवा उनके चित्रोंको देखकर उनको माता, पुत्री ब बहिन समान समझ स्त्री संबंधी कथा, कोमल वचन, स्पर्श, रूपका देखना, इत्यादिक राग क्रियाओंका परित्याग करना ही तीनों लोकोंमें पूज्य ब्रह्मचर्य महानत है ॥८॥
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