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मुनिधर्म [१]
स्मरण करना, अथवा किसीकी शरण मांगना, अथवा रोगीको अच्छे भोजनादिका स्मरण दिलाना ) ||६ ॥
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३२ सचित्त मूली, ३३ सचित्त अदरख, ३४ सचित्त गन्ना, ३५ प्याज, सूरण आदि कंद, ३६ सचित्त जड़ीबूटी, ३७ सचित्त फल, ३८ सचित्त चीज ॥ ७ ॥ ३९ सौवर्चल नमक, ४० सैंधव नमक, ४१ सामान्य नमक, ४२ रोम देशका नमक, ४३ समुद्री नमक, ४४ पांशु खार (पांशु लवण ) तथा ४५ काला नमक आदि अनेक प्रकार के सचित्त नमक ||८||
४६ धूपन ( धूप देना अथवा बीड़ी आदि ना ), ४७ वमन ( औषधोंके द्वारा उल्टी करना ), ४८ बस्तिकर्म ( गुदामार्ग से जल आदि चढ़ाकर पेट साफ करना ), ४९ विरेचन ( जुलाब लेना ), ५० नेत्रोंकी शोभा बढ़ाने के लिये अंजन आदि लगाना, ५१ दाँतोंको रंगीन बनाना, ५२ गात्राभ्यंग विभूषण ( मालिश और शरीर को सजाना ) ॥ ९ ॥
संयमसे युक्त और द्रव्य ( उपकरण ) तथा भाव ( क्रोधादि कषायों ) से हलके होकर विहार करनेवाले निर्बंथ महर्षियोंके लिये उपर्युक्त ५२ प्रकारकी क्रियाएँ अनावरणीय हैं ॥ १० ॥
पांच ( इन्द्रिय ) आस्रव द्वारोंके त्यागी, मन, बचन और काय, इन तीन गुप्तियों से गुप्त ( संरक्षित ); छ: कायके जीवों के प्रतिपालक ( रक्षक), पंचेन्द्रि योका दमन करनेवाले, धीर एवं सरल स्वभावी निर्मेय मुनि होते हैं ॥। ११॥
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समाधियुक्त संयमी ग्रीष्मऋतु में उम्र आतापना सहते हैं, हेमंत ऋतु में वस्त्रोंको अलग कर शीत सहन करते हैं, और वर्षाऋतु में मात्र अपने स्थानमें ही अंगोपांगों को संवरण कर बैठे रहते हैं ॥ १२ ॥
( अकस्मात् आनेवाले संकटों ) रूपी शत्रुओं को दमन करनेवाले, मोह को दूर करनेवाले और जितेन्द्रिय महर्षि सब दुःखों का नाश करने के लिये संयम एवं तप मैं प्रवृत्त होते हैं ॥१३॥
उनमें से बहुत से साधु महात्मा दुष्कर तर करके और अनेक असह्य कष्ट सहन करके देवलोक में जाते हैं और बहुत से कर्मरूपी मल से सर्वथा मुक्त होकर सिद्ध होते हैं || १४ ||
( जो देवगति में जाते हैं वे संयमी पुरुष फिर मर्त्यलोक में आकर घटकाय जीवों के त्राता होकर, संयम एवं तपश्रयी द्वारा पूर्व संचित समस्त कर्मों का क्षय करके सिद्धमार्ग का आराधन करते हैं और क्रमशः निर्वाण को प्राप्त होते हैं ।। १५ ।। [ दशवैकालिक सूत्र -- ३ ]