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तत्त्वनिर्णयप्रासादउत्तरः-हां. अन्यतरेंके भी आर्य है, जैनमतके प्रज्ञापना सूत्र में नवप्रकारके आर्य कहे हैं. । तथाहि ॥ क्षेत्रार्य १, जाति आर्य २, कुलार्य ३, कार्य ४, शिल्पार्य ५, भाषार्य ६, ज्ञानार्य ७, दर्शनार्य ८, चारित्रार्य ९. ।
अब प्रथम आर्य पदका अर्थ लिखते हैं. । "तत्रारात् हेयधर्मेभ्यो याताः प्राप्ता उपादेयधर्मरित्यार्याः पृषोदरादयइति रूपनिष्पत्तिः ॥” । तहां आरात् त्यागने योग्य धर्मोसें जाते रहे हैं, और प्राप्त है अंगीकार करने योग्य धोकरके वे कहिये, आर्य. ॥
१. क्षेत्रार्य-क्षेत्रार्यका स्वरूप तो, ऊपर लिख आए हैं. ॥ १॥
२. जातिआर्य-अम्बष्ठ १, कलिंद २, वैदेह ३, वेदंग ४, हरित ५, चुञ्चुण ६, रूप ये इभ्यजातियां प्रसिद्ध है, तिसवास्ते इन जातियोंकरके जे संयुक्त है, वे जातिके आर्य है, शेष नही. यद्यपि शास्त्रांतरोंमें अनेक जातिये कथन करी है, तो भी, लोकोंमें येही जातियें पूजने योग्य प्रसिद्ध है. ॥ २॥
३. कुलार्य-उग्रकुल १, भोगकुल २, राजन्यकुल ३, इक्ष्वाकुकुल ४, ज्ञातकुल ५, कौरवकुल ६.। जिनको श्रीऋषभदेवजीने कोतवालका पद दिया था, उनका जो वंश चला, तिसका नाम उग्रकुल १, जिनको श्रीऋषभदेवजीने पूज्य बडाकरके माना, उनका वंश भोगकुल २, जो श्रीऋषभदेवके मित्रस्थानीये थे, उनका वंश राजन्यकुल ३, जो श्रीमहावीरजीका वंश, सो ज्ञात (न्यात) कुल ४, जो श्रीऋषभदेवजीका वंश, सो ईक्ष्वा. कुकुल ५, जो श्रीऋषभदेवजीके कुरुनामा पुत्रसे वंश चला, सो कौरववंश ६. चंद्रवंश, और सूर्यवंश, जो श्रीऋषभदेवके पोते चंद्रयश, और सूर्ययशके नामसे प्रसिद्ध हुए हैं, इक्ष्वाकुवंशके अंतरभूतही गिने हैं, न्यारे नही. ॥३॥
४. कार्य-इनके अनेक भेद हैं । दोसिका जातिविशेष १, सौत्तिका २, कर्पासिका ३, मुक्तिवैतालिका जातिविशेष ४, भंडवेतालुका जाति
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