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तत्त्वनिर्णयप्रासादगो-यथार्थ अर्थ गर्भितवाणीकरके दीव्यति स्तौति-स्तुति करता है सो कहिये ‘गोदेव' तस्य गोदेवस्य-तिस गोदेवका पोषक इत्यर्थः । यदि अनजान बालकने भी धूलकी मुट्ठी भरके भगवान् बुद्धकेतांइ कहा कि लीजीए महाराज ! यह आपका हिस्सा (भाग) है, तिससेंही तिसको राज्यप्राप्तिरूप फल हुआ तो, क्या आश्चर्य है कि, जे भावसे बुद्ध भगवान्की स्तुति करनेमें तत्पर हैं, तिनके मनवांछित प्रयोजनको सिद्ध करे.। तथा (धीम ) धियं ज्ञानमेव मिमीयते-शब्दयति-प्ररूपथति ज्ञानकोंही जो कथन करता है, सो ‘धीमः' तिसका आमंत्रण 'हे धीम' ! जे बाह्यार्थाकार घटपटादिरूप हैं तिनको अविद्यादर्शित हानेसे अवस्तु होनेकरके असरूप है, ज्ञानाद्वैतकोही तिसके (बौद्धके) मतमें प्रमाणता होनेसें. । बुद्धके चरणोंकी सेवा करनेवालोंने ऐसा कहा है। “ग्राह्यग्राहकनिर्मुक्तं विज्ञानं परमार्थसत्। नान्योनुभावो बुद्ध्याऽस्ति तस्यानानुभवोपरः॥१॥ ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाश्यते । बाह्यो न विद्यते ह्यर्थो यथा बालैर्विकल्प्यते ॥२॥ वासनालुठितं चित्तमर्थाभासे प्रवर्त्तते। इत्यादि”। यहां बहुत कहनेयोग्य है, सो तो ग्रंथ गौरवताके भयसें नही कहते हैं,। गमनिकामात्र फल होनेसें, प्रयास (उद्यम) का। (हि) स्फुटं प्रकट (यो) पदके एकदेशमें पदसमुदायके उपचार हे योगिन्। “बुद्धे तु भगवान् योगी” इति अभिधानचिंतामणि शेषनाममालावचनसें योगी नाम बुद्धका है, तिसकाआमंत्रण हे योगिन् ! (बुद्ध) - (नः) हमारी (धिय:) बुद्धियोंको अभिप्रेत तत्त्वज्ञानप्रति प्रेर, रजु कर. इति (अत्) अतति सातत्येन गच्छतीति अत् । गत्यर्थधातुओंको सर्वज्ञानार्थ होनेसें ' हे अत्' हे सर्वज्ञ' ! इत्यर्थः ॥ इति बौद्धाभिप्रायेण मंत्रव्याख्या ॥६॥
अथ जैमिनिमुनिके मतवाले तो, सर्वज्ञको देवताकरके मानतेही नहीं हैं; किंतु, नित्य वेदवाक्योंसेंही तिनको तत्त्वका निश्चय है. । साक्षात् अतीद्रिय अर्थके देखनेवाले किसीका भी तिनके मतमें भाव न होनेसें. । " यदुक्तं । ” अतींद्रियाणामर्थानां साक्षादद्दाष्टा न विद्यते । वचनेन हि
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