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एकादशस्तम्भः।
२९३ नित्येन यः पश्यति स पश्यति ॥१॥ इसवास्ते, वे वेदवाक्यके प्रमाणसेंही गुरुताकरके अग्निहीकी पर्युपासना करते हैं,। तिस अग्निके प्रणिधानार्थ वेद स्तुतिगर्भित यह पढते हैं.॥ मंत्रः॥
ॐ भूर्भुवःस्वस्तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गोदे वस्य धीमहि धियोयो नः प्रचोदयात् ॥१॥७॥ ॐ । भूर्भुःखस्तत् । सवितुः । व । रे । आण्यं भर्गोदे । वस्य। धीमहि। धियः । अयः । नः। प्रचोदयात् ॥७॥
व्याख्या ॥ (धियः ) बुद्धियां (नः) हमारी-भवंत्विति वाक्यशेषःहोवें कैसी बुद्धियां होवें ? (अयः) अयंति गच्छंतीति अयः अर्थात् गमन करनेवाली। कहां?। (रे) अग्निविषे । अग्निशब्दकरके यहां तिसकी (अग्निकी) आराधना ग्रहण करनी । तब तो अग्निआराधनादिमें हमारी बुद्धियां प्रवर्तनेवाली होवें, यह अर्थ संपन्न हुआ. इति । किंविशिष्टे रे । कैसे अग्निविषे? (भर्गोदे) अवतीति ऊः दाहक इत्यर्थः, अवतिधातुको श्री सिद्धहेमधातुपाठमें दहनार्थताकरके पठन करनेसें । 'भर्ग' ईश्वर, सो 'ऊ' दाहक है जिसका, सो कहिये 'भोः' काम इत्यर्थः । “ यत्कालिदासः।” क्रोधं प्रभो संहर संहरेति यावद्गिरः खे मरुतां चरंति । तावत्स वन्हिर्भवनेत्रजन्मा भस्मावशेष मदनं चकार ॥१॥ तं तिस कामको, जो ददात्याराधकेभ्यः देवे आराधकोंकेताइ, सो कहिए 'भर्गोदः' तस्मिन् 'भर्गोदे' कामको देनेवाले अग्निविषे इत्यर्थः । अग्नि तार्पयांके शास्त्रमें अग्नितर्पणसें संपत्की संप्राप्ति कथन करनेसें, और संपदाको कामका हेतुत्व होनेसें, कामकी प्राप्ति सिद्ध है.।' तथा च शिवधर्मोत्तरसूत्रं ।' पूजया विपुलं राज्यमग्निकार्येण संपदः । तपः पापविशुद्ध्यर्थं ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम्' ॥ १॥ पुनः किंविष्टे रे-फिर कैसे अग्निविषे? (धीमहि) धियः-पंडिता महः पूजका यस्य स तथा तत्र । पं. डित पूजक है जिसके, ऐसे अग्निविषे. । क्या स्वच्छंदेकरके हमारि बुद्धियां प्रवर्तती हैं ? नही. सोही कहे हैं. । (प्रचोदयात्) चोदनं-चोदया
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