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पश्चमस्तम्भः। व्याख्या-सृष्टिके वाद करनेवाले सर्वलोकको ( संपूर्ण जगत्को ) कृत्रिम (रचाहुआ) मानते हैं, तिनमेंसें महेश्वरादिसें सृष्टिकीउत्पत्ति माननेवाले सृष्टिवादी जे हैं वे संपूर्ण लोककोआदि और अंतवाला मानतेहैं ४२
मानीश्वरजं केचित् केचित्सोमाग्निसंभवं लोकम्॥
द्रव्यादिषड्विकल्पं जगदेतत्केचिदिच्छन्ति ॥ ४३ ॥ व्याख्या-मानी ईश्वर ( अहंकारी ईश्वर ) मैं ईश्वर हूं ऐसे ईश्वरसें लोक उत्पन्न हुआ है, ऐसे कितनेक मानते हैं, कितनेक सोम और अग्निसें जगत्की उत्पत्ति मानते हैं, और कितनेक इस जगत्को द्रव्यादि पवि. कल्परूप मानते हैं, सोइ दिखाते हैं ॥ ४३ ॥
द्रव्यगुणकर्मप्तामान्ययुक्त विशेष कणाशिनस्तत्त्वम् ॥
वैशेषिकमेतावत् जगदप्येतावदेतावत् ॥ ४४ ॥ व्याख्या-पृथिव्यादिनवप्रकारका द्रव्य, शब्दादि चौवीस गुण उतक्षेपादि पांच प्रकार कर्म, सामान्य द्विप्रकार, समवाय एक, और विशेष अनंत, यह षट्पदार्थ कणादमुनिका तत्त्व है, वैशेषिकमतभी इतनाही है, और जगत्भी इतनाही है ॥ ४४ ॥
इच्छन्ति काश्यपीयं केचित्सर्व जगन्मनुष्याद्यम्॥
दक्षप्रजापतीयं त्रैलोक्यं केचिदिच्छन्ति ॥४५॥ व्याख्या-कितनेक सर्व जगत्कों कश्यपसंबंधि मानते हैं, अर्थात् यह जगत् कश्यपने रचा है. 'तथाहि शतपथब्राह्मणे'
सयत्कुम्मों नाम । एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत यत्सृजताकरोत् तद्यदकरोत्तस्मात्कूर्मः कश्यपो वै कूर्मस्तस्मादाहुः सर्वाः प्रजाः काश्यप्यइति-श
कां-७ अ-५ ब्रा-१ कं-५ [भाषार्थः] (स यत्कर्मो नाम) सो, जो कि, कूर्मनामसें वेदोंमें प्रसिद्ध है, सो (एतद्वै रूपं कृत्वा प्रजापतिः) एतत् अर्थात् कर्मरूपको धारण
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