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तत्त्वनिर्णयप्रासाद करना चाहिए, परंतु अन्यका नहीं. क्योंकि, पूर्वोक्त विशेषणोंकरके रहित अनर्थके कथन करनेवाले अज्ञानी पंडितोंके विचार करनेसें तिनोंके वचन सुननेसें और तिनकों अपने इष्टदेव माननेसे क्या प्रयोजन है ? क्या लाभ है ? अपितु कुछभी नहीं है ॥ ३९ ॥
यस्य निखिलाश्च दोषा न सन्ति सर्वे गुणाश्च विद्यन्ते॥
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा महेश्वरो वा नमस्तस्मै ॥ ४०॥ व्याख्या-जिसके सर्वदोष, अर्थात् राग, द्वेष, मोह, अज्ञानादि अष्टादश दूषण नहीं है, अर्थात् क्षय होगए हैं, और सर्वगुण अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र, अनंतवीर्यादि अनंत गुण जिसके विद्यमान हैं, अर्थात् दूषणोंके नष्ट होनेसें आत्माके अनंत गुण जिसके प्रकट हुए हैं, सो ब्रह्मा होवे वा विष्णु होवे व महेश्वर होवे तिसकेतांई मेरा नमस्कार होवे ॥ ४०॥ इतिश्रीमद्विजयानन्दसूरिविरचिते तत्त्वनिर्णयप्रासादे लोकतत्त्व
निर्णयान्तर्गतदेवतत्त्ववर्णनो नाम चतुर्थःस्तंभः ॥ ४ ॥
अथपञ्चमस्तम्भारम्भः॥ चतुर्थस्तम्भमें देवतत्त्वस्वरूपकथन किया अथ पंचमस्तम्भमें लोक क्रियात्मविषयक वर्णन लिखते हैं.
लोकक्रियात्मतत्त्वे विवदन्ते वादिनो विभिन्नार्थम् ॥
अविदितपूर्व येषां स्याहादविनिश्चितं तत्त्वम् ॥४१॥ व्याख्या-जिनोंकों स्याद्वादकरके विशेष निश्चित करेहुए तत्त्वका ज्ञान नहीं हुआ है, वे वादी लोकक्रियात्मतत्त्वविष अन्य अन्यतरेसें विवाद करते हैं, अज्ञातपूर्वकत्वात् ॥ ४१ ॥
इच्छंति कृत्रिमं सृष्टिवादिनः सर्वमेवमिति लोकम् ॥ कृत्स्नं लोकं महेश्वरादयः सादिपर्यन्तम् ॥ ४२ ॥
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