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अज्ञातसूरिविरचिता
जह सीमंधरपहुणा, कहिया तह सूरिणा वि किं बहुणा । ता नाणपरिक्खत्थं, पुच्छर सको नियं आउं ॥ १३५॥ कित्तयमित्तं अज्ज वि, उवउत्तो जा पलोयए सूरी । दो सागरोवमे ता, किंचूणे आउसेसं ति ॥ १३६॥ तस्सी (तो सी?) समुन्नमि (मे १) जं, दाहिणत्येण जंपियं गुरुणा । वज्जहरो होसी तुमं, तो पच्चक्खो हरी होइ ॥ १३७॥ विनवर जोडियकरो, सीमंधरसामिणा विजयपहुणा । तुम्ह पसंसा विहिया, तेणाहं आगओ नाह ! ॥१३८|| मह पणिवाओ सामिय ! पुणो पुणो होउ तुज्झ पायाणं । विष्फुरइ जस्स नाणं, एवंविहदूसभाए वि ॥ १३९ ॥ निरस विहु काले, जिणसास उन्नइकया जेण । पयडेडं नियसर्त्ति, तस्स नमो तुज्ज मुणिनाह ! ॥ १४० ॥ एवं थुणिऊण पहुं, पुरंदरो सो गओ नियं ठाणं । गुरुणो वि नरवईहि, महिज्जमाणा महीवीढे ॥ १४१ ॥ मिच्छत्ततमदिणेसा, चिरं विवोर्हितु भव्वकमलवणं । कालय सूरिमुणिंदा, अणसणविहिणा दिवं पत्ता ॥ १४२ ॥ इय कालिगसूरिमुणी सराण संखेवओ इमं चरियं । farerओ विन्नेयं, गुरुयकहाणं पुणो एयं ॥ १४३ ॥ इन्दि कालगसूरिठावियदिणे काऊण सक्खामणं,
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अन्नुन्नं गुरु-सीस-दंपय- पिया - माया - तणूजाइणा । बंधू भयणीहि मित्त-सयण-स्सस्सू - वहूहिं समं,
ता संवच्छर सव्वपावखमणं कायव्वमावस्सयं ॥ १४४ ॥
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इति श्रीयुगप्रधान कालिकाचार्यकथानकं समाप्तम् ॥ सं० १४९० वर्षे वैशाख शुदि २ ॥
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