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कालिकाचार्यकथा। भरणुद्धरणारित्ते, वालुअपत्यम्मि कि पि न मुणंति । मणिरो सागरचंदो, गुरुणा वुत्तो कयाइ इमं ॥११॥ वच्छ ! सुहम्माउ सुअं, झिज्जतं आगयं इय ममं जा ।
ता तुह गुरू तओ, तंतो जुज्जइ नेव नाणमओ ॥१२॥ भणियं च
मा वहउ कोइ गव्वं, इत्य जए पंडिओ अहं ति जओ । आसवन्नुमयाओ, तरतमजोगेण मइविभवा ॥९३॥
भिक्खागएम साहुसु, कयाइ सूरी दिएण सड्ढेण । पुट्ठो पयडेइ फुडं, इय तिजयठिए निगोअजिए ॥१४॥ अव्ववहारी(१) इयरे(२), दुहा निगोआ तहा इमा मुहुमा ।
इयरे वायर-सुहुमा, गोलेसु ठिआ अणंतजिआ ॥९५॥ । यदागमः
गोला य असंखिज्जा, अस्संखनिग्गोअ गोलओ भणिओ । इक्किक्कम्मि निगोए, अणंतजीवा मुणेयव्वा ॥१६॥ तणु(२) तणुचर्य(२) मिस्वा(२), घर(१) पुर(२) नरसम(३) निगोअ(१) गोल(२) जिआ(३)। तिन्नि वि तुल्लोगाहणसुहुमा अंगुलअसंखं से ॥९७॥ इय सोउ विम्हिओ सो, पुण भणइ विसेसनाणमुणणत्यं । वुड्ढो मि होइ जइ पहु !, थोवाउ गहेमि तोऽणसणं ॥९८॥ अयरदुगमाउ नाउं, गुरुराहुन्नयभुवं हरि त्ति भवं । सहरिसमह थुणइ हरी, जयमु चिरं इह तुमं भयवं ! ॥१९॥ को वि निगोए भरहे वि, मुणइ इय मे जमज्जपुटेणं ।
सीमंधर पहुऍत्ते, तमणप्पसमो वि अप्पसमो ॥१०॥ अन्यत्राप्युक्तम्-.
सीमंधरभणणाओ, निगोयकहणेण रक्खियज्जो व्व । कालयमूरी वि दवे, सविम्हियं वंदिओ हरिणा ॥१०१॥ विहह मा इंति मुणी, अँणिओ गुरुणा हरी नमिय जंतो । अन्नत्तो वसहिमुई, काउ गओ मुणि नियाणभया ॥१०२॥ अह कहइ गुरू आगयमुणीण तं वसहिदारपज्जतं ।
तो पत्तचरित्तथिरत्तजइजुओ विहरइ महीए ॥१०३॥ २७ 'गुत्तो त P। २८ भणीउ °P।
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