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श्रीधर्मधोषसूरिविरचिता तम्मा सइ सामत्थे, आणामम्मि नो खलु उकेश ।
अणुकूले हियरेडिय, अणुसट्ठी होइ कायष्याः ॥२५॥ तथा
देव-गुरु-संघकज्जे, चुमिज्जा चकवष्टिसि पि । कुविओ मुणी महप्पा, पुलायलद्धीइ संपनो ॥२६॥ एवं च करतेणं, अव्वुच्छित्ती कयौ य सिस्थम्मि ।
जइ वि सरीरावाओ, तह वि आराहओ सो उ ॥२७॥ सो -
जइ निवइगरभिल्लो, ओरोहा चारसंचरो विसओ । पवरा पुरी मुवेसो, जणो तओ किं परमिओ मे ॥२८॥ इय सूरिम्मि तिगाइस, गहिल व्व पयंपिरे अणं दटुं। नियनिवइनिंदिरं तो, मतीहि वि इय निवो भणिओ ॥२९॥ देव ! न जुत्तमिणे, जं नरो अवन्नं मुणीण कुणमाणो ।
पावइ दुइदंदोलिं, सह देसाईहिं जं भणियं ॥३०॥ यथा--
देवतापतिमाभङ्गे, साधनां च विनाशने ।
देशभङ्ग विजानीयाद् , दुर्भिक्षडमराशिवैः ॥३१॥ अवि य--
अवमन्निआ उ हाणिं, दिति रीसी रोइयव्वयं हसिया । अकोसिया उ वह-बंधणाइ तह ताडिया मरणं ॥३२॥ सिक्खवह रे ! सपियरि ति, निवृत्ते जाइ सूरी सगकूलं । राया साहणुसाही, भन्नइ जहिं साहिणो सेसा ॥३३॥
पेसहए य छुरीए, ससिरम्मि य आगइम्पि पहुछेहे । मंताइरंजियं साहिमेगमइभीअमाह गुरु ॥३४॥ जामो हिंदुगदेसं, तेढा पानवसाहिणो सेसे । भह! मुकयाइहेऊ, अप्पं रविखज जं भणियं ॥३५॥ जीवन् भद्राण्यवाप्नोति, जीवन् पुण्यं करोति च । मृतस्य देहनाशः स्याद् , माधुपरयस्तया ॥३६॥ उत्तरिय सिंधुमह ते, इत्तु सुरवास पाउसम्मिठिया ।
गुरुणा कणगी कयइटदाणओ च(चा)लिया सरए ॥३७॥ ५.रति •PI १३ बरे तिPI
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