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कालिकाचार्यकथा।
१२१ -नास्ति धर्म ए विषयईड संदेह पूछउ । विवाद हुउ । तिहां वाद करिवउ तेतलइ ते शिष्य आव्या । सविहुँ जणे आचार्य जाणा ॥४९॥
अब्भुटेडिऊणं तो, सागरचंदो वि लजि(ज्जि)ो पाए ।
पडिओ खमावइ गुरू, विणओ धम्मस्स मूल ति ॥५०॥
-तदनंतर ते कालिकाचार्य जाणी सागरचंदाचार्य लाजउ हुँतउ आसण थको उठि विनयसहित पगे लागउ । गुरुनइ खमावइ जेह भणी विनय धनु(में) मूल ॥५०॥
अह सोहम्मसुरिंदो, सीमंधर जिणवरिंदवषा(क्खा)णं ।
निगो(ग्गो)यवियारमयं, सुणिऊणं पुच्छए भयवं ॥५१॥ -अथानंतर सौधर्मेन्द्र सीमंधरस्वामीनुं वखाण, निगोदना वखाण तन्मय तत्स्वरूप सांभली भगवंतनइ पूछह ॥५१॥
भरहे को वि वियारो, एसो सयलो वि जाणई मज्झं ।।
संदिसह भणइ भयवं, तो मुगुरू कालिगायरिओ ॥५२॥
-भो भगवन् ! ए समस्त विचार भरथक्षेत्रमाहे कीइ जाणइ छइ, किं वा नहीं ? ए वात मुझनइ कहउ । तिवार पछह भगवन् ! श्रीसीमंघरस्वामि श्रीमुखइ श्रीकालिकाचार्य कहइ जाणइ एह बात सही ॥५२॥
गंतूण तत्थ पुच्छइ, दियवेसेणं नियाज्यं इंदो।
समयबलेणं गाउ(ओ), एसो इंदो न उण मणुओ ॥५३॥ -पछइ ब्राह्मणनइ वेसि इंद्र तिहां आवी आपणुं आयु पूछइ। सिद्धांतबलइ आचार्य जाणइ । ऐं इंद्र मनुष्य न हुइ ॥५३॥
पयडीभूय तओ तं, थुणिउ(ऊ)णं सरसमहुर वि(व?)ग्गूहि ।।
काउ(ऊ)ण ठाणदारं, विवरीयं तो गओ इंदो ॥५४॥
-श्री इंद्र जाण्या पछइ प्रगट हुई । ते आचार्य श्रीकालिकसूरिनइ सरस मधुर वचन स्तवी । उपाश्रयद्वार विपरीत करी आपणइ ठाम पहुता इंद्र ॥५४॥
सासणकयप्पहावो, समए संलेहिउ(ऊ)ण अप्पाणं ।
संपतो(तो) सुरलोयं, गुणनिलओ कालगायरिओ ॥५५॥
-इम जिणसासणमाहि प्रभावक सिरोमणि समस्त सूरिना गुणनउ निधान समय प्रस्तावि आपणउ मात्मा संलेखणा करी सूरलोक पहुता श्रीकालिकाचार्य ॥५५॥
अप्परुइसीसहेउ, कयं कहाणयमिणं [ह] समासेणं ।
सिरिजिणसमुदसुहगुरुसुसीसकल्लाणतिलएण ॥५६॥
--ए बालावबोध समास भणीइ संक्षेपइं । अल्परुचि महात्मा महासतीनइ हेतु कीधउ । श्रीजिनचंद्रसूरि पट्टपूर्वाचलसहस्रकरावतार श्रीजिनसमुद्रसूरि सुहगुरु तेहनइ शिष्य वाणारीस कल्लाणतिलकगणिइ । एतलइ ए कथा परिपूर्ण वखाणी । थिवरनइ अधिकार । तिहां विवेकीआ श्रावक दान सील तप भावनाइ करो आपणी लक्ष्मी सफल करइ । सविहूं माहि भावना हुती प्रभावना गुरुई तउ आज अमको श्रावको श्रावक प्रभावना करी आपणां जन्म जीवितव्य सफल करह । एवंविध पुण्यप्रमाण चडइ ते देवगुरुना प्रसाद । तेह भणी तेहना प्रसाद लगी श्रीसंघ आचान्द्रार्क जयवंत हुउ ॥ ५६ ॥ इति श्रीकालिकाचार्यकथा बालावबोधः कृतः वा० कल्लाणतिलकगणिभिः ॥ पं. कुसलालिपीकृतम् ; श्रीमरोटकोट्टमध्ये ॥ संवत् १६२५ वर्षे श्रावणवदि ११ दिने लिपीकृतम् । मानकुसलवाच्यमानं चिरं जीयात् ॥ शुभं भवतु । श्रीः॥
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