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श्रीकल्याणतिलकगणिविरचिता सिरिसाय(ल)वाय(ह)णेणं, संघेण य कालिगारिया भणि[या] ।
छट्ठीए कायव्वा, पजूसणा न उण पंचमी(मि)ए ॥४२॥ .--अन्य दिन राजा श्रीसालवाहन अनइ संधि कालिकाचार्य पूछ्या । हम कह्यु; भगवम् ! पर्युषणा छठि दिनि करउ न पुन पांचमइ ते स्यइ ॥१२॥
पंचमीए इंदमहो, च्छव्यवट्ट [?] ग(ग)तव(ब्व)मेव सव्वेण ।
तेण न जिणाण पूया, भवस(विस्स)इ तत्थ तो कुणह ॥४३॥
--भगवन् ! पांचमइ इंद्र महोच्छव छइ । सर्वलोक तहां जासइ । तेह भणी जिन श्रीवीतरागनी पूजा स्नात्रादिक नही हुइ । तेणि कारण लगी छट्टिइं करउ मया करीनइ ॥४३॥
सूरी पभणइ तत्तो, चलइ कया वि य सुमेरुगिरिचूला ।
न हु पंचमीदिणाओ, पजो(ज्जो सवणा न(य ?) अइकमे(मइ) ॥४४॥
-तिवारइ आचार्य कहइ; राजन् कदाचित् मेरुनी चूलिका कल्पांत वाय हती चालइ पणि ए पर्युषणा भादवा सुदि पांचम थकी न चालइ । पांचमि अतिक्रमइ लांघइ नही ॥४४॥
भवउ चउत्थीए तो, तिथुन्नय(इ)कारणं च सूरीहि
नाउ(ऊ)ण पव्वराय, कयं चउत्थीदिणे परमं ॥४५॥
-तउ स्वामी पर्वराज चउथइ हुवइ । ए वात सांभली तीथिन्नतर जाणी सुगुरे ए पर्व चउत्थीनइ दिनि कीधा ॥१५॥
भणियं च जओ मुत्ते, आरेणावि कप्पइ ण परओ [?] ।
अह अन्नया स सीसा, सच्छंदा कालभावाओ ॥४६॥
-जेह भणी सूत्रमाहे कहुं अर्वाग् भणी एउ रहउ कल्पइ पणि परहुं न कल्पइ । अन्यदा भाचार्य प्रस्तावि स्वशिष्य स्वच्छंदवर्ति चालता देखी कालना दोष लगी स्युं कीधउ । ते कहइ ॥४६॥
सिज्जायरगिहवइणो, कहिउ(ऊ)णं सूरिणो गया तुरियं ।
सीसाणुसीसबहुमुयसागरचंदस्स य समीवे ॥४७॥
-पछइ सिजातर श्रावकनइ कही आपणपइ शिष्यानुशिष्य सागरचंद्राचार्य समीपि आव्या। ते सूता सूता मूक्या ॥४७॥
बहु मनिउ(ऊ)ण तेणं, विजा(ज्जा)मयगविएण भो वुढ(इद) ! ।
पुच्छइ(सु ?) विसमपयं जं, तुम्हाणं वहए किंचि ॥४८॥ -पणि तिणइ विद्यामदगर्वित हुंतह मान-सन्मान न दीधउ । न उलिख्या । न जाण्या आवीनइ कहइ भो वृद्ध ! कांइ विषम पद तम्हारइ हृदय हुवइ ते पूछउ । हुं सविहुंना संदेह भांजउ । पछह गुरे आचार्य सगर्व जाणी पूछइ ॥४८॥
तओ विवाओ जाओ, अत्थी नत्थि ति धम्मविसओ य । तावागया य सीसा, गाओ सो कालगायरिओ ॥४९॥
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