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कालिकाचार्यकथा । भो कुणह धम्मसरणं, अहुपा चिय मुच्चए जओ सिग्धं ।
नो पडिवज्जइ तो सो, निवासिओ तेहि विसयाओ ॥३६॥
--वली आचार्य कहइ; " राजन् ! अजी गउ नथी, ताहरु काइ, जउ द्विविध धर्ममाहे एक धर्मनुं अंगीकार करइ तउ राज्य आपीइ । एह हुंती सीघ्रपणइ मुंकाई । इम कहुं पणि पडिवजइ नहो । तिवारइ ते सगराजाइ गर्दमिलनइ मालवा हुंती निकासउ। दूरि कीघउ ॥३६॥
सूरिहिं ते राजे(रज्जे)सु, ठाविया संजमे तहा भगिणी ।
बलमित्त-भाणुमित्ता, जामिसुया तत्य संपत्ता ॥३७॥
-स गुरे ते राज्य थाप्या । सविहुंनइ विहची मालवान राज्य आपुं । तथा भगिनी सरस्वती संयमइ थापइ । आपणपइ गच्छमाहे आवी इरियावही पडिकमी मिच्छामि दुक्कड देइ । विहार करता जिहां बलमित्र-भानुमित्र बहिनना बेटा छह तिहां भाव्या ॥३७॥
भरुयच्छदेसपहुणो, पहपवेमुत्स(च्छ)वं च काऊणं । सोऊण निवइप(पु ?)त्तीभानुस(सि)रीनंदणो धम्मं ॥३८॥
-ते भरुअच्छ देसना ठाकुर तेह प्रभु श्रीकालिकाचार्य- प्रवेशोत्सव सविस्तर कराव्या । पछह प्रभुनी देसना सांभली बलमित्र राजानी पुत्री तेहनउ नंदन कुण एक विसेष करइ ॥३८॥
मुहगुरुकहियं गिण्हइ, बलभान(ण)नामओ य पविज(वज) ।
जिणभत्तं नाउ(ऊ)णं, निव[३]पुरोहा कुणइ वायं ॥३९॥
-राजा श्रीवलमित्र तेहनी पुत्री भानुश्री, तेहनउ नंदन बलभानु नामा कुमार सुहगुरुनुं कथित धर्म सांभली दीक्षा लीधी । इम राजा राजलोक जिनशासन भक्त जाणी राजानउ पुरोधा सुयसा नाम गुरु साथि वाद करइ सभामाहे ॥ ३९॥
सो निजि(ज्जि)ओ गुरूह(हिं), वयणेहिं वंचिऊण निवलोओ(ए ?) । ठाणे ठाणे भत्तं, अणेसणीयं च सो कासी ॥४०॥
-पछइ ते गुरे जीतउ । लोकमाहि पुरोधानी मानम्लानि हुई । तिवार पछद तिणइ ब्राह्मणइ इस्ये वचने कर राजा नगर लोक वंचिउ । सा ते वचन; " अहो राजन् ! एक सोनउ नइ सुरभि । सुहगुरु अनइ सगा। एवडउ काइ करउ । ए सुहगुरुना पायकमल पूजीइ, आराधीइ, तेह भणी ए जिहां बइस्यइ पगलां न्यसइ, ते भूमिका आपणे पगे किम स्पर्शी ! आसातना हुवह । गुरुनइ सरस आहार दीज"। इम मुग्ध लोकनइ कपटवचने विप्र तारी । थानकि थानकि भक्त अनेषणीय करावी गुरु चलाव्या ॥४०॥
ता स गुरू कारणओ, समागए वि य घणे पयठा(इट्ठा)णं ।
पत्तो पुरप्पस, कुणइ निवो परमभत्तीए ॥४१॥
-तदनंतर गुरु कारण जाणी वर्षाकाले विहार करी पठाणपुरि आव्या । परमभक्तइ तिहां सातवाहन राजाइ नगरप्रवेस कराव्यउ। तिहां सुखद रहइ ॥४१॥
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