________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पाउलएणं भणिओ कुमरो नईइ परकूले । भद्द ! गवेससु गंतुं कइया वि हु होइ तत्थेव ॥ ११३८ ॥ ते विहु जणणीविरहे पिउपासं पुत्तया न मुंचति । तो तेहिं सहिओ चिय गवेसणत्थं नईइ गओ ॥ ११३९ ॥ संठाविऊणमेगं बीयं ने नईइ परकूले। जावाऽऽगच्छइ पढमाऽऽनयणत्थं ताव असुहव सा ॥११४०॥ सहसच्चिय नइनीरं वहिं पत्तं तओ अवसपाओ । पयपूरेण नईए कुमरो बुडि मात्तो ॥ ११४१ || भवियद्ययाइ पत्तं किं पि हु कट्ठाइयं नइमज्झे । तण्णिस्साए पत्तो कित्तियमित्तम्मि भूभागे ॥११४२॥ उत्तरिऊण तहाविहतरुछायं पाविडं समुवविट्ठो । चिंतइ विसण्णहियओ विहिविलसियमप्पणो असुहं ॥११४३ ॥ पिच्छ एपइश्चिय मह विहिणो वामया हयाऽऽसस्स । जं चिंतिउंन सक्का न या वि कहिउँ न वा सहिजं ॥ ११४४ ॥
भणियं च - चिंतिज्जइ जं न मणे जुत्तिवियारेण जुज्जइ न जं च । तं पि हयासो एसो सुहमसुहं वा विही कुणइ ॥ २१४५ ॥ तहा — खणदंसियसुरसिरिवित्थराई खणसुण्णठाणसरिसाई । एयाई ताई कम्मिंदियालिणो जीव ! ललियाई ॥११४६ ॥ जणयजणणीविओगो पियाइ बिरहो सुयाण विच्छोहो । भूयवलिध कुटुंबं दिसोदिसिं लियं विहिणा ॥ ११४७॥ न तहा जणणीजणया न तहा मह भारिया दहइ हिययं । जह वाला वणमज्झे मुक्का दुहदायगा अहियं ॥ ११४८ ॥ ता किं करेमि संपइ ? किं वा सरणं जणं पवज्जामि ? । विसमविसंठुलचिट्ठिय ? ऽहं विहि ! वच्चामि भण कत्थ ? || १९४९ ॥ अहवा गरुयाणं पि हु जायइ वसणं विहिम्मि विवरीए । किं ? किर अम्हारिसाण विउसा भांति जओ ॥११५०॥
अलङ्कारः शंकाकरनरकपालं परिजनो, विशीर्णागो भृंगी वसु च वृष एको बहुवयाः । अवस्थेयं स्थाणोरपि भवति सर्वा
१] अस्वाधीनपादः । २ युगपदेव ३ क्षिप्तम् ।
For Private and Personal Use Only