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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( 88 ) गौर शबल सारंग पिशंग हरिण पाण्डुर अमर सुंदर विकल निकल ( गुणवचनाः ) दास चेट विट भिक्षुक बंधक पुत्र गायत्र आनंद नट ( अजातिवचनाः ) काव्य शैव्य मत्स्य मनुष्य मुकय हय गवय ऋश्य गुण ओकण सौधर्म आरद दोटी वरट नाट मूलाट पाट सुपाट पेट पट पटल पुट कुट धातक केतक तर्कर बदर कुबल लवण बिल्व आमलक भालत वेतस अतस आढक कदर कदल गडुच कुंभ यूष मेष भूष करीर सल्लक मालक मेथ पिष्पल हरीतक कोशातक शम तम शृंग भृंग बर्बर पाण्ड पिंड ग्रूप सूप सूर्प मठ पिठर खार काकण द्रोण आनंद कंदल देह देहल शष्कुल सूच मंजर वैजयंत शालूक सरस अनडुही अ नड्वाही प्रत्यवरोहिणी पृथिवी आग्रहायणी, नात्र पुंवद्भावलुकौ, एहि पर्येहि नद मह गर देव तर सूद चण्ड वरट इत्याद्याः, बहूनदा भूभिः । २-४-८७ मत्स्यस्य यः ङयां लुक् । २-४-२१ वयस्यनन्त्ये ङीरात्, कुमारी परमकिशोरी कलभी तरुणी वधूटी । २-४-२३ परिमाणात्तद्धितलुक्यविस्ता ( षष्टिः पलानि ) ssचित (तौलकं) कम्बल्यात् (उर्णापलशतं) द्विगोरतः, आयामं तु प्रमाणं स्यात्परिमाणं तु सर्वतः । द्वाभ्यां कुडवाभ्यां क्रीता द्विकुडवी । २-४-२४ कांडात्प्रमाणादक्षेत्रे द्विगोः, द्विकांडी, अप्रमाणादपीति । २-४-२५ पुरुषाद्वा प्रमाणाद् द्विगोस्तद्धितलुकि, द्विपुरुषी । २-४-२६ रेवतरोहिणाद्भे, रेवती रोहिणी, रेवत्यां जाता रेवती । २-४-२७ नीलात् प्राण्यौषध्योः, नीली । २-४ . For Private and Personal Use Only
SR No.020738
Book TitleSiddhaprabha Vyakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRushabhdev Keshrimal Jain Shwetambar Sanstha Ratlam
PublisherRushabhdev Keshrimal Jain Shwetambar Sanstha Ratlam
Publication Year1934
Total Pages440
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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