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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उवघाय कुविहगई, थावरदसगेण होंति चोत्तीसं । सव्वाओ मिलिआओ, बासीती पावपगईओ ॥७३॥ १-५ पांच ज्ञानावरणीय, ५-१० पांच अंतराय, ११-१९ नव दर्शनावरणीय, २०-४५ छवीस मोहनीय, ४६ असातावेदनीय, ४७ नरकायु, ४८ नचिगोत्र, हवे ४९ थी ८२ सुधीनी नामकर्मनी चोत्रीस प्रकृतिओ कहे छे. ४९-५० नरकगति अने नरकानुपूर्वी, ५१-५२ तिर्यंचगति अने तिर्यचानुपूर्वी ५३-५६ एकेंद्रियादि चार जाति, ५७-६१ पहेला सिवायना पांच संघयण, ६२-६६ पहेला सिवायना पांच संठाण, ६७-७० अशुभवर्णादि चार, ७१ उपघात, ७२ अशुभ विहायोगति, ७३-८२ स्थावरदशक - ए सर्व मळीने ब्यासी पापप्रकृतिओ छे (७१-७३) ते पाप व्यासी भेदे छे तो पण पुण्यानुबंधी अने पापानुबंधी भेदधी वे प्रकारनुं पण छे, अथवा अनंत जीवोने आश्रित होवाथी अनंत प्रकारनुं पण छे, तथापि अशुभनुं समानपणुं होवाथी पाप एक छे. शंका-कर्म छते पण एक पुण्य ज छे, तेनो प्रतिपक्षभूत पापकर्म नधी. शुभ अने अशुभ फलोनी सिद्धि पुण्यथी ज थाय छे. ते आ प्रमाणे:- परम उत्कृष्ट जे आ शुभ फळ, ते १. आ ४५ प्रकृति घातिप्रकृतिओ छे. २. समकितमोहनीय अने मिश्रमोहनीय वे प्रकृति 'बंध 'मां नथी माटे २६ कहेल छे. अनादि मिथ्यात्वीने उदयमां पण ते वे नथी. समकित पाम्या बाद मिथ्यात्वमोहनीय जत्रण भागे वर्हेचाय छे अर्थात् त्रण पुंज कराय छे. ३. नील ने कृष्णवर्ण, दुरभि गंध, तिक्त, कटुरस, गुरु, कर्कश, शीत अने रुक्ष ए चार स्पर्श ए नव भेद अशुभ छे. ४ पोताना अंगोपांगथी दुःखी थ ते. जेम प्रतिजीभ ( काकडो ), रसोळी वगेरेथी. For Private and Personal Use Only १ स्थाना ध्ययने पापसत्ता १२ सूत्रम् ॥ ३० ॥
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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