SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir XKXXXEXEKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX पुण्यना उत्कपर्ने कार्य छे. पुनः पुण्यना उत्कर्षथी जे अल्प, अल्पतर अने अल्पतम फळ, ते तरतमयोगवडे अपकर्षना भेदविशिष्ट पुण्यनु ज फल छे. तरतमयोगवडे अपकर्षना भेदनी छवट परम प्रकपनी हानि पर्यंत, तथा परमप्रकर्षवडे हीन पुण्यनुं ओछामां ओछु शुभ फळ-कंइक जे शुभ मात्रा ते ज अत्यंत दुःख. आ तात्पर्य छे. ते ज ओछामा ओर्छ पुण्यविशिष्ट दुःख प्रकपनो सर्वथा नाश थये छते पुण्यात्मक बंधना अभावी मोक्ष छे. जेम अत्यंत पथ्य आहारना सेवनथी पुरुपने परम आरोग्य- सुख थाय छे ते ज पुरुषने कंइक कंड़क पथ्य आहारना त्यागथी अने अपथ्य आहारनी वृद्धिथी आरोग्य सुखनी हानि थाय छे तेमज सर्वथा आहारना त्यागथी प्राणनो नाश थाय छे. अहिं पथ्य आहार उपमा छ अने पुण्य उपमेय छे, अर्थात् पुण्य पथ्य आहार समान छे. अहिं समाधान करे छे-जे आ दुःखप्रकपनी अनुभूति ते सुखना प्रकर्षनी अनुभूति( अनुभव )नी माफक प्रकपर्नु अनुभवपणुं होवाथी स्वयोग्य कर्मना प्रकपथी उत्पन्न थाय छे. जेम सौख्य प्रकर्षनी अनुभूति, स्वअनुरूप पुण्यकर्मना प्रकर्षथी उत्पन्नं थाय छे एम तमारावडे स्वीकारायेल छ, तेम आ पण दुःखना प्रकर्षनी अनुभूतिनी (प्रकर्षनी अनुभूति होवाथी) स्वयोग्य पापकर्मना प्रकर्षथी उत्पत्ति थशे. ए प्रमाण- फल छे. वळी भाष्यकार कहे छ केःकम्मप्पगरिसजणियं, तदवस्संपगरिसाणुभूइओ।सोक्खप्पगरिसभूई,जह पुण्णप्पगरिसप्पभवा॥७॥ आ गाथानो भावार्थ कहेवायेल छे. (१२) १. आगाथामां तद् शब्दथी ' दुःख लेवु. XKXEXXXKAKKKKAKKKXKXKXKXKXXXXX For Private and Personal Use Only
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy