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होवाथी पर कहेवाय, अने अपर-यज्ञदत्तथी देवदत्त पाछळ उत्पन्न थयेल होवाथी अपर कहेवाय, एवा लक्षणवाळो काळ अवस पिणी अने उत्सर्पिणीरूपे वे प्रकारनो छे. वे स्थानना अनुरोधथी एम कं नहिं तो अवस्थित लक्षणवाळो महाविदेह तथा भोगभूमि - युगलिक क्षेत्रमां संभवित बीजो भेद पण छे. 'आगासे' ति० सर्व द्रव्योना स्वभावाने आकाशयतिमर्यादापूर्वक प्रकाशे, द्रव्यना स्वभावनां लाभमां अवस्थान ( आधार ) ने आपे ते आकाश. अहिं ' आङ् ' शब्द मर्यादा अने अभिविधिवाचक छे. तेमां मर्यादाना अर्थमां आकाशमा रहेता छतां पण भावो पोताना स्वरूपमा ज रहे छे, आकाशपणाने पामता नथी, एवी रीते ते भावोने पोताने आधीन न करवाथी आकाशस्वरूप थता नथी. अभिविधिना अर्थमां तो सर्व भावोमां व्यापक होवाथी आकाश छे. जे आकाशना देशमां धर्मास्तिकाय वगेरे द्रव्योनी वृत्तिप्रवृत्ति छे तेज आकाश लोकाकाश छे, तेथी विपरीत (जेमां धर्मास्तिकाय वगेरेनी प्रवृत्ति नथी) ते अलोकाकाश छे. (सू० ७४) हमणा ज लोक - अलोक भेदथी आकाश वे प्रकारे कधुं. बळी लोक, शरीरवाळा जीव। अने शरीरोनो सर्वथा आश्रयरूप होवाथी नारक वगेरे शरीरवाळा दंडकवडे शरीरनी प्ररूपणा करे छे
इयाणं दो सरीरगा पं० तं०- अभंतरगे चेव वाहिरगे चेव, अब्भंतरए कम्मए बाहिरए विए, एवं देवाणं भाणियव्वं, पुढविकाइयाणं दो सरीरगा पं० तं० - अब्भंतरगे चैव वाहिरगे चैव, अब्भंतर कम्मए बाहिरगे ओरालियगे, जाव वणस्सइकाइयाणं (१), बेइंदियाणं दो सरीरा
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