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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ९४ ॥ www.kobatirth.org पं० तं - अभंतरए चेव वाहिरए चेव, अब्भंतरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणितबद्धे बाहिरए ओरालिए, जाव चउरिंदियाणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दो सरीरगा पं० तं०-अब्भंतरगे चैव बाहिरगे चैत्र, अब्भंतरगे कम्मए, अट्ठिमंससोणियण्हारुछिराबद्धे वाहिरए ओरालिए, मणुस्साणवि एवं - चेव (२), विग्गहग इसमावन्नगाणं नेरइयाणं दो सरीरगा पं० तं तेयए चेत्र कम्मए चेव, निरंतरं जाव वेमाणियाणं, नेरइयाणं दोहिं ठाणेहिं सरीरुप्पत्ती सिया, तं० - रागेण चैव दोसेण चैव, जाव वेमाणियाणं नेरइयाणं दुट्ठानव्यतिए सरीरगे पं० तं० - रागनिव्यत्तिए चैत्र, दोसनिव्वत्तिए चेत्र, जाव माणियाणं, दो काया पं० तंथ्-तसकाए चेत्र, थावरकाए चेव, तसकाए दुविहे पं० तं०-भवसिद्धिए चैत्र, अभवासिद्धिए चैत्र, एवं थावरकाएऽवि (३) । सू० ७५ मूलार्थ:- नैरयिकोने वे शरीर कहेल छे, ते आ प्रमाणे- अभ्यंतर शरीर अने बाह्य शरीर. अभ्यंतर ते कार्मण अने तैजस शरीर अने बाह्य ते वैक्रिय शरीर. एवी रीते देवोने पण बे शरीर जाणत्रा. पृथ्वीकाधिकोने वे शरीर कहेल छे, ते आ-अभ्यंतर अने बाह्य अभ्यंतर ते कार्मण शरीर अने बाह्य ने ओदारिक शरीर, यावत् वनस्पतिकायिकोने बे शरीर जाणवा. (१), बेइंद्रियांने For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir *XXXXXX स्थानका ध्ययने उद्देशः १ शरीरस्व रूपम् |७५ सूत्रम् ९४
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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