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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandie श्रीस्थानागसूत्र सानुवाद ॥९३॥ २ स्थानका ध्ययने उद्देशः१ कालाकाशी ७४ सूत्रम् KKKKKKXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXY आकाशदेशमा जे रहेलाओने बे वगेरे समयो थयेला छे ते परंपरावगाढको जाणवा. अथवा विवक्षित क्षेत्र अथवा द्रव्यनी अपेक्षा | करीने अंतरहितपणे रहेला ते अनंतरावगाढ अने वीजा अंतरसहितपणे रहेला ते परंपरावगाढ (२३-२८). (सू० ७३) हमणा ज द्रव्यर्नु स्वरूप कह्यु, हवे द्रव्यना अधिकारथी द्रव्य विशेष काळे अने आकाशद्रव्यनी प्ररूपणा करे छे. दुविहे काले पं० २०-ओसप्पिणीकाले चेव उस्सप्पिणीकाले चेव, दुविहे आगासे पं० २०-लोगागासे चेव अलोगागासे चेव । सू०७४ मूलार्थ:-बे प्रकारे काळ कह्यो छे-ते आ प्रमाणे-अवसार्पिणी अने उत्सार्पणी काळ, आकाश बे प्रकारे कर्तुं छे, ते आ X प्रमाणे-लोकाकाश अने अलोकाकाश.. टीकार्थ:-कल्यते-ओं जणाय छे, अथवा जेनावंडे जणाय छ, अथवा जाणवू, अथवा कला (क्षण ) वगेरेनो समूह ते काळ, वर्तना एटले नवा पुराणादिरूपे निरंतर वर्त्तते वर्तना. पर-देवदत्तथी यज्ञदत्त पहलो जन्म्यो १. कलणमित्यादि कलसत्वसंख्यानयोः कलनं काल इति भावे प्रत्ययो घञ् परिच्छेद इत्यर्थः, कल्यते वा परिच्छिद्यते वा यतोऽनेन वस्तु, अवर्तरि च कारके संज्ञायां घा, कलयति वा परिच्छेदयंति वा समयादिपर्यायास्तामिति कालः तस्मिन् वा स्थितान् कलयंति, समयादिकलानां वा समूहः कालः । २. कर्मणि प्रयोग छे माटे अहि कर्तानो अध्याहार छे. ३. अहिं काळ करुणरूप छे माटे कर्ता अने कर्मनो अध्याहार छे, ४. आ भाववाचक छे. XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX XXXxx ॥ ९३॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020691
Book TitleSthanang Sutram Sanuvadasya
Original Sutra AuthorSudharmaswami
AuthorAbhaydevsuri
PublisherAbhaydevsuri
Publication Year
Total Pages377
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size19 MB
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