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आ गाथाना भावार्थ कल छे. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व पण जघन्यथी अंतर्मुहूर्त्त स्थितिवाळु होवाथी अने उत्कृष्टथी छाशठ सागरोपमथी कंईक अधिक स्थितिवाळं होवाथी प्रतिपाती छे. जो के क्षपक ( क्षायिक सम्यक्त्वना प्रारंभकं ) ने समयग्दर्शनना दलिक छेला पुद्गलना अनुभवरूप ( एक समयनी स्थितिवाळं ) वेदक कहेवाय छे, ते (वेदक) पण क्षायोपशमिकनो भेद होवाथी प्रतिपाती ज छे. तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व अने सम्यक्त्वमोहनीयना क्षयथी क्षायिक सम्यक्त्व कहेवाय छे. भाष्यकार कहे छे:
खीणे दंसणमोहे, तित्रिभिवि भवनियाणभूयंभि । निप्पञ्चवायमउलं, सम्मत्तं खाइयं होइ ॥ ९ ॥
अनंतानुबंधी चतुष्कना क्षय क बाद संसारना मूल कारणभूत त्रण प्रकारे पण दर्शनमोह क्षय थये छते अत्यंत विशुद्ध, अतुल्य, क्षायिक सम्यक्त्व होय छे. क्षायिक सम्यकूत्व क्षायिक भावरूप होवाथी अप्रतिपाती ज छे. आ कारणथी ज सिद्धपणामां पण साथै प्रवर्ते छे. (३-४). 'मिच्छादंसणे' इत्यादि - अभिग्रह कुमतनो स्वीकार छे मां ते अभिग्राहक मिथ्यादर्शन जाणवुं. (५). 'अभिग्गहिये' त्यादि - अभिग्रहिक मिथ्यादर्शन, सम्यक्त्वन प्राप्ति थये छते जेनो अथाय छे ते सपर्यवसित, अभव्यने सम्यक्त्वनी प्राप्ति न होवाथी अपर्यवसित- अंतरहित छे. ते मिथ्यात्व मात्र पण अतीत
१. अनंतानुबंधो चतुष्क, मिथ्यात्व अने मिश्रमोहनीयनो क्षय करी, छेल्ले सम्यक्त्वमोहनीयने खपावता एक समय स्थितिक चरम पुद्गलना वेदनरूप अंश ते ज वेदकसम्यक्त्व कहेवाय छे. २. अधिगम सम्यक्त्वना पण प्रतिपाती आदि वे भेद जाणवा
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