________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
भूमिक्त्रयसाभाविय-संभवओ दद्दुरोव्व जलमुत्तं । अहवा मच्छोव सहा-यवोमसंभूयपायाओ ॥१.३॥
आ गाथानो भावार्थ उपर आवेल छे. तथा वायु, बीजानी प्रेरणा सिवाय तिर्यक् (आजुबाजु ) अनियमित दिशामां गायनी माफक गति करवाथी जीव सहित छे. हेतुवाक्यमां ' अपरप्रेरित' शब्दना ग्रहण करवाथी माटीना देफा वगेरेनी साथे व्यभिचाररूप हेत्वाभासदोषनो परिहार करेल छे. एवी ज रीते ' तिर्यक्' शब्दना ग्रहणथी ऊंचे गति करवावाळा धूमाडा साथे अने 'अनियमित' शब्दना ग्रहणथी नियमित गतिवाळा परमाणुनी साथे दोपना परिहार करेल छे. तथा तेजः (अग्नि) आहार ( लाकडा वगैरे ) ने ग्रहण करवायी अग्निनी वृद्धिनो विशेष साक्षात्कार थवाथी अने तेना विकारनुं पुरुषनी माफक प्रत्यक्ष थवाथी जीव सहित छे. भाष्यकार कहे छे
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
अपरप्पेरियतिरिया - ऽनियमियदिग्गमणओऽनिलो गोव्व । अनलो आहाराओ, विद्धिविगारोवलंभाओ ।९४
आ गाथानो भावार्थ उपर कहेल छे. अथवा पृथ्वी, पाणी, अग्नि अने वायु वादळा वगेरेना विकार रहित मूर्त्तजातिवाळा होवाथी गाय वगेरेना शरीरनी जेम जीवना शरीरो छे. वादळा वगेरेना विकारो मूर्त्तजातिवाळा होवा छतां पण ते जीवना शरीरो नथी ते माटे दोपना परिहार माटे हेतुमां (अभ्रादिविकारवर्जित ) विशेषण आपेल छे. (९४) फरी भाष्यकार कहे छे:तणओऽणभाइविगा - रमुत्तजाइत्तओऽनिलंताई । सत्यासत्यहयाओ, निज्जीवसजीवरूवाओ ॥ ९५ ॥
पृथ्वी आदि चार, स्व-परशस्त्रथी हणाया होय तो जीव रहित छे अने शस्त्रथी न हणायेल होय तो सजीव छे. आ
For Private and Personal Use Only