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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Ravadisexsatorsakcertvikretarsearts सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६३३ ॥ गति ४, जाति ५, विहायोगति २, बसस्थावर २, सूक्ष्मवादर २, पर्याप्तअपर्याप्त २, सुखरदुस्वर २, सुभग दुर्भग २, आदेय अनादेय २, यश-कीर्ति अयश कीर्ति २, स्वासोस्वास १, तीर्थकर १, ऐसें सब मिलि ७८ जीवविपाककी प्रकृति हैं । ए सत्तरकी अपेक्षा एकसौ अठतालीस प्रकृति जाननी ।। आगे सो अनुभवबंध तो कह्या, अब प्रदेशबंध कहनेयोग्य है, ताकू वक्तव्य होतें एते प्रयोजन कहने । प्रदेशबंधका कारण तो कहा है ? कौनसे कालविणे होय है ? काहेत होय है ? कहा स्वभाव है? किसविर्षे होय है ? केते परमाण परमाणु है ? ऐसें अनुक्रमकरि प्रश्नके भेदकी अपेक्षा लेकरि तिसके उत्तरके अर्थि सूत्र कहै हैं ॥ नामप्रत्ययाः सर्वतो योगविशेषात्सूक्ष्मैकक्षेत्रावगाहस्थिताः सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्तप्रदेशाः ॥२४॥ याका अर्थ- ज्ञानावरणआदि प्रकृतिनिकू कारण तीनि कालसंबंधी जीवके भावनिविर्षे योगके विशेष सर्वही आत्माके प्रदेशनिविर्षे सूक्ष्म एकक्षेत्रावगाहकरि तिष्ठं ऐसे अनन्तानंत पुद्गलके स्कंध बंधरूप होय, तिस... प्रदेशबंध कहिये । तहां नामके कारण होय ताकू नामप्रत्यय कहिये । | इहां नामशब्दकरि सर्व कर्मप्रकृतिका ग्रहण है । जाते स यथानाम ऐसा अनुभवबंधका सूत्र है । ताते eatsabsoriasiseriaseberadikeertabaertairawports For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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