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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६३४ ॥ नाम कहनेतें प्रकृति जाननी । ऐसे कहनेकरि तौ प्रदेशबंधकै कारणपणा कह्या । बहुरि सर्वतः कहिये सर्वभवनिविर्षे इहां तस्प्रत्यय सप्तमीविभक्तिका अर्थमें है । जाते व्याकरणका ऐसा सूत्र है, दृश्यतेऽ. न्यतोऽपि । इस वचनतें सप्तमीविभक्तिमेंभी तस्प्रत्यय होहै, इस वचनतें कालका ग्रहण कीया है । जातें एकजीवकै अतीतकालमें अनंते भव वीते आगामी कालमें संख्यात तथा असंख्यात तथा अनंत भव होंयगे । बहुरि योगविशेषात् कहिये मनवचनकायके योगके विशेष पुद्गल हैं ते कर्मभा. वकरि जीव ग्रहण करें हैं । ऐसें कहनेकरि निमित्तविशेषका स्वरूप कह्या ॥ . बहुरि सूक्ष्मादिशदके ग्रहणतें कर्मके ग्रहणयोग्य जे पुद्गल तिनका स्वरूपका वर्णन है । ग्रहणके योग्य पुद्गल सूक्ष्म हैं स्थूल नाहीं । बहुरि एकक्षेत्रावगाहवचन है सो अन्यक्षेत्रका अभाव जनावनेके अर्थि है । आत्माके प्रदेशनिही मैं तिष्ठे हैं अन्य जायगा नाहीं। बहुरि स्थिता ऐसा कहनेते तिष्ठंही हैं, चलते नाही हैं ऐसा जनाया है । बहुरि सर्वात्मप्रदेशेषु ऐसा वचन है, सो, तिन कर्मप्रदेशनिका आधार कह्या है, एकही प्रदेशादिविर्षे कर्म नाही तिठे हैं, ऊपर नीचे तिर्यग् | सर्वही आत्मा प्रदेशनिवि व्यापिकरि तिष्ठे हैं । बहुरि अनंतानंतप्रदेशवचन है, सो, अन्यपरि- | | माणका अभाव जनावनेकू है, संख्यात नाहीं हैं, असंख्यात नाहीं हैं, अनंत नाहीं हैं । जे | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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