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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ अष्टम अध्याय ॥ पान ६२९ ॥ हीन अनुभव बंधे है । बहुरि अशुभपरिणामनिके प्रकर्ष होनेते अशुभप्रकृतिनिका उत्कृष्ट अनुभव बंधै है । अर शुभपकृतिका हीन अनुभव बंधै है । सो ऐसें कारणके वशतें प्राप्त भया जो अनुभव सो दोयप्रकार प्रवर्ते है, स्वमुख करि बहुरि परमुखकरि । तहां मूलप्रकृतिके जे आठ कर्म तिनका तो अनुभव स्वमखहीकरि प्रवत है। अपना अपना बंधके अनुसार उदय आवै है। अन्यकर्मका | अन्यकर्मरूप होय उदय आवै नाहीं । बहुरि उत्तरप्रकृतिनिका जे तुल्यजातिकर्म होय तिनका परमुखकरिभी अनुभव होय है । तिनमें आयुकर्मके भेदनिकें तौ परमुखकरि उदय नाहीं, जो आय बंधै ताहीका उदय होय । बहरि दर्शनमोह अर चारित्रमोहके परस्पर उलटना नाही। जो बांधै सोही उदय आवै । सोही कहिये है । नरकआयु तौ तिर्यंच आयु होय उदय आवै नाहीं । मनुष्यआयु नरकतिर्यंचरूप होय उदय आवै नाहीं ऐसें । बहुरि दर्शनमोह तो चारित्रमोहरूप होय उदय आवै नाही अर चारित्रमोह दर्शनमोहरूप होय उदय आवै नाहीं। आगे शिष्य कहै है, जो, प्रर्व संचय कीया जो नानाप्रकार कर्म, ताका विपाक सो अनुभव है, सो यह तो हमने | अंगीकार कीया मान्या, परंतु यह न जाने है- यह अनुभव प्रसंख्यात कहिये जो प्रकृतिगणनामें | आई तिसस्वरूपही है कि अप्रसंख्यात कहिये किछु औरभांति है ? ऐसें पूछे तें आचार्य कहै हैं। GKGANPARAGANPARIKEANPARAMPARASIRRAINEPARINEEPARASADAR For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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