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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । अष्टम अध्याय || पान ६३० ॥ प्रसंख्यातही हैं, जो प्रकृतिगणनामें आई तिसरूपही उदय आये भोगिये है । जातें ऐसा है ऐसें सूत्र है हैं— ॥ स यथानाम ॥ २२ ॥ याका अर्थ -- जो प्रकृतिनाम है तैसाही ताका अनुभव है । तहां ज्ञानावरणका फल ज्ञानका अभाव है, शक्तिकी व्यक्ति न होना है। दर्शनावरणका फल दर्शनशक्तिकी व्यक्ति न होना है । ऐसेंही जैसा जाका नाम है तैसाही अर्थरूप अनुभव सर्वकर्मप्रकृतिनिका भेदनि सहित प्रतीतिमें ल्यावना ॥ आगें शिष्य कहै है, जो कर्मका विपाक सो अनुभव कह्या, तहां कर्म भोगे पीछे आभूषणकीज्यों लग्या रहै है, कि भोगे पीछे साररहित होय गिरि पड़े है झडि जाय है ? ऐसें पूछे सूत्र कहै हैं॥ ततश्च निर्जरा ॥ २३ ॥ याका अर्थ- तिस अनुभवपीछे निर्जराही है । भोगेपीछे झडि जाय है । आत्माकं दुःख सुख देकर अर पूर्वस्थितिके क्षयतें फेरि अवस्थान रहै नाहीं । तातें कर्मकी निवृत्तिही होय है । जैसें आहार खाय सो पचिकर झडिही जाय, तैसें झडि जाय, याहीकूं निर्जरा कहिये । सो यह दो प्रकार है, सविपाकतें उपजी अविपाकतें उपजी । तहां च्यारि हैं गति जामें बहुरि अनेक जातिके For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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