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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३६५ ॥ नाही हैं । दशभेदनिके आठही भेद हैं । आगें, तिन निकायनिवि इन्द्र कैसे हैं तिनिका नियमके अर्थ सूत्र कहें हैं ॥ पूर्वयोद्दीन्द्राः ॥ ६ ॥ याका अर्थ - पहले दोय निकाय भवनवासी व्यंतर इनविषै दोय दोय इन्द्र हैं । पूर्वयोः कहिये पहले दोय निकाय भवनवासी व्यंतर तिनविषै दोयदोय इन्द्र हैं । इहां प्रश्न, जो, दूसरेकै पूर्वपणा कैसें? ताका उत्तर- जो, समीपतें पूर्वपणां उपचारतें कहा है । बहुरि दीन्द्राः ऐसे शब्द में दोयदोय ऐसा अर्थ कैसा भया ? ताका उत्तर- जो, इहां अंतनत वीप्सा अर्थ है । तातें दोयदोय इन्द्र होय ताकूं दीन्द्रा ऐसा कहिये । जैसैं सातसात पान होंय ताकूं सप्तपर्ण कहिये तथा आठआठ पद होय ताकूं अष्टापद कहिये तैसें इहांभी जाननां । सोही कहिये हैं || भवनवासीनिविषै असुरकुमारनिके चमर वैरोचन ए दोय इन्द्र हैं । नागकुमारनिकें धरण भूतानंद ए दोय इन्द्र हैं । विद्युत्कुमारनिकें हरिसिंह हरिकान्त ये दोय इन्द्र हैं । सुपर्ण कुमारनिके वेणुदेव वेणुताली ए दोय इन्द्र हैं । अभिकुमारनिकें अभिशिख अग्निमाणव ए दोय इन्द्र हैं । वातकुमारनिकें वैलंब प्रभंजन ए दोय इन्द्र हैं । स्तनितकुमारनिकै सुघोष महाघोष ए दोय इन्द्र हैं । उदधिकुमारनिकै For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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