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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिकां पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय || पान ३६४ ॥ कहिये परम ऐश्वर्य वर्त्ते ते इन्द्र हैं । बहुरि आज्ञा ऐश्वर्यकरि रहित स्थान आयु वीर्य परिवार भोग उपभोग आदिकर इन्द्रसमान होंय ते सामानिक हैं । ते इन्द्रके पिता गुरु उपाध्यायकी - ज्यों बडे होंय तैसें होय हैं । बहुरि मंत्री पुरोहित की जगह होंय ते त्रायस्त्रिंश कहिये, तेतीस देव हैं, ते त्रयस्त्रिंश कहिये । बहुरि इन्द्रके वयस्य कहिये मित्र पीठमर्द कहिये, सभाविषै पछाडी दाबि बैठें ते पारिषद कहिये । बहुरि इन्द्र के सुभट शस्त्रधारी रक्षकज्यों होय ते आत्मरक्षक हैं । बहुरि जे कोटपाल हाकिम फौजदारतुल्य होय ते लोकपाल हैं । पयादा आदि सात प्रकारकी सेनाके देव ते अनीक कहिये । बहुरि जैसें नगर में व्यापारी आदि वसें तैसैं वसनेवाले प्रकीर्णक कहिये । बहुरि दाससमान वाहनादिकार्यविषै प्रवत ते आभियोग्य हैं । बहुरि नगरके अंत में वसें चाण्डालसमान ते किल्विषक हैं । किल्विष नाम मलिनता पापका है । सो इनके ऐसाही कर्मका उदय है, जो, देवगतिमें नीच होय हैं। इहां एकश ऐसैं कहनेसें एकएक निकायके ए भेद हैं ॥ आगे ए दश भेद चाही निकाय के सामान्यपर्णे प्रसंग आवै ताके अपवाद के अर्थ सूत्र कहै हैं॥ त्रास्त्रिंश लोकपालवर्ज्या व्यन्तरज्योतिष्काः ॥ ५ ॥ याका अर्थ- व्यंतर तथा ज्योतिषी देवनिविषै त्रायस्त्रिंश बहुरि लोकपाल ए दोय भेद For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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