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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kalassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३६३ ।। आगे तिन निकायनिके अन्तरभेदके प्रतिपादनके अर्थ सूत्र कहै हैं ॥ दशाष्टपञ्चहादशविकल्पाः कल्पोपपन्नपर्यन्ताः ॥३॥ ___याका अर्थ- देवनिके निकायनकें दश आदि संख्याशदनिकरि यथासंख्य संबंध करना । ऐसें करतें भवनवासीनिके दश भेद हैं । व्यंतरनिके आठ भेद हैं । ज्योतिषीनिकें पांच भेद हैं । वैमानिकानकें बारह भेद हैं। तहां बारह भेद कल्पवालीनिकही हैं । अगले ग्रैवेयकादिके भेद नांही हैं। इहां पूछे हैं, जो, इनकू कल्प ऐसी संज्ञा कैसे है ? ताका समाधान जो, इनमें इन्द्र आदि दशप्रकार कल्पिये हैं, तातें कल्पसंज्ञा है । फेरि पूछे है, जो, यह कल्पना तौ भवनवासीआदिविभी है। ताका उत्तर जो, रूढिके वशते वैमानिकनिविही कल्पशद वर्ते | है । तातें जे कल्पनिविर्षे उपजै ते कल्पोपपन्न कहिये ।। आगें इनका विशेष जाननेके अर्थि सूत्र कहें हैं॥ इन्द्रसामानिकत्रायस्त्रिंशपारिषदात्मरक्षलोकपालानीकप्रकीर्णकाभियोग्य किल्बिषिकाश्चैकशः ॥४॥ याका अर्थ- अन्यदेवनितें असाधारण जे अणिमादिकऋद्धिसहित गुण तिनकरि इन्दन्ति | है For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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