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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ चतुर्थ अध्याय ॥ पान ३६६ ।। जलकान्त जलप्रभ ए दोय इन्द्र हैं । द्वीपकुमारनिकें पूर्ण वशिष्ट ए दोय इन्द्र हैं | दिक्कुमारनिके अमितगति अतिवाहन ए दोय इन्द्र हैं । ऐसें इनकें वीस इन्द्र हैं । बहुरि व्यंतरदेवनिवि किंनर निकै किन्नर किंपुरुष ए दो इन्द्र हैं। किंपुरुषनिकें सत्पुरुष महापुरुष ए दोय इन्द्र हैं । महोरगनिकें अतिकाय महाकाय ए दोय इन्द्र हैं। गंधर्वनिके गीतरति गीतयश ए दोय इन्द्र हैं । यक्षनिकै पूर्णभद्र माणिभद्र ए दोय इन्द्र हैं । राक्षसनिकें भीम महाभीम ए दोय इन्द्र हैं । पिशाचनिकें काल महाकाल ए दोय इन्द्र हैं । भूतनिकें प्रतिरूप अप्रतिरूप ए दोय इन्द्र हैं । आगे इन देवनकें सुख कैसा है ऐसें पूछै तिनके सुख जाननेके अर्थ सूत्र कहे हैं॥ कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ॥ ७ ॥ याका अर्थ - प्रवीचार कहिये कामसेवन सो भवनवासीनि लेइ ऐशानस्वर्गपर्यंत देवनि कायकरि कामसेवन है । इनके संक्लेशकर्मका उदय है । तातें मनुष्यकीज्यों स्त्रीका विषयसुख भोग हैं । इहां " आ ऐशानात् " इस शब्दविषै आङ् उपसर्ग अभिविधि अर्थमें है, तातैं ऐसा अर्थ भया, जो, भवनवासीनितें लगाय ऐशानपर्यंत कायकारि मैथुन है । बहुरि इहां संधि न करी सो संदेह निवारणके अर्थि न करी है । संधि करिये तव ऐशान ऐसाही सिद्ध होय, तब For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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