SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra CDCDCP89479992999999 www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय ॥ पान २४५ ॥ ' संसरणं ' कहिये परिभ्रमण परिवर्तन सो संसार है । तहां लक्षण ऐसा, जो, अपने भावकरि बांधे जे कर्म तिनिके वश भव भवांतर की प्राप्ति ताकूं संसार कहिये | ऐसा संसार जिनिके होय ते संसारी जीव कहिये । सो यहु परिवर्तन पंचप्रकार है द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन, भावपरिवर्तन ऐसे पांच प्रकार । तहां द्रव्यपरिवर्तन दोय प्रकार, एक नोकर्मपरिवर्तन दूसरा कर्मपरिवर्तन । तहां नोकर्मपरिवर्तन कहिये है। तीन शरीर छह पर्याप्ति के योग्य जे पुद्गलपरमाणू स्कंध एक जीव एकसमयविषै ग्रहण कीये ते स्निग्ध रूक्ष वर्ण गंध आदि तीव्र मंद मध्यमभावकरि जैसे तिष्ठते द्वितीयादिक समयविषै खिरै बहुरि द्वितीयादिक समयविषै विना ग्रहे परमाणू अनंतवार ग्रहण करे, तिनिक्कूं उल्लंघिकरि बहुरि पहले ग्रहे थे तिनि के गृहीत भी बहुरि नवे ग्रहण करे तेभी दोऊ मिले ग्रहण करै तिनिकूं मिश्र कहिये । तेभी अनंतवार अनंतवार ग्रहण करै तिनिकूं उल्लंघिकर बहुरि बीच में गृहीत ग्रहे थे ते गृहीतग्रहण होते जाय ते अनंतवार ग्रहण में आवै तिनिकूं उल्लंघिकर जामैं जे पहले समये परमाणू ग्रहे थे तेही तैसेही स्पर्शादिके अविभागपरिच्छेदनिकी संख्या लिये तथा तितनेही परमाणूकूं लीये समयप्रवृध्द ग्रहण करे ऐसें होतें जो काल भया तब एक नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन हो है ॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy