SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 262
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृतः ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २४४ ॥ अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन ऐसें च्यारि भेद ॥ इहां पूछै, जो, दर्शनज्ञानविर्षे भेद कहा? तहां कहै हैं, साकार अनाकारके भेदतें भेद है । साकार तो ज्ञान है, जाते ज्ञेयके आकार होहै । अनाकार दर्शन है, जातें सत्तामात्र आकारकरि रहित ग्रहण करै है । सो ए दोऊ छद्मस्थ जीवकै तो अनुक्रमतें वर्ते हैं। पहले दर्शन हो है, पीछे ज्ञान हो है । बहुरि निरावण जे केवली | तिनिके दोऊ युगपत् एककाल प्रवतें है । इहां सूत्रविर्षे दर्शनतें पहली ज्ञान कह्या है सो ज्ञान पूज्य । प्रधान है । तथा इहां सम्यग्ज्ञानका प्रकरण है तातें कह्या है । बहुरि पूर्वं ज्ञान पांच प्रकार कह्या है । इहां उपयोग कहनेतें विपर्ययज्ञानभी ग्रहण कीया है । ताते आठ प्रकार का है। ऐसे दोय सूत्रकरि कह्या जो उपयोग लक्षण सो जीवकै शरीरतें भेदकू साधै है । जैसे उष्णजलकी अवस्थामें द्रवपणा अरु उष्णपणा जल अमिका भेदकू साधे है। जैसे जहां दोय वस्तुका एक पिंड होय तहां लक्षण भेदतेही भिन्नता दीखे है ऐसा जाननां ॥ आगें, ऐसे उपयोगकरि सहित जे जीव उपयोगी ते दोय प्रकारके हैं, ताका सूत्र कहै हैं ॥संसारिणो मुक्ताश्च ॥ १०॥ ___याका अर्थ- उपयोगवाले जीव संसारी बहुरि मुक्त कहिये सिद्ध ऐसे दोय प्रकार हैं ॥ | For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy