SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २४६ ॥ बहुरि कर्मद्रव्यपरिवर्तन कहिये हैं। तहां एकसमयविर्षे एक जीव अष्टविध कर्मभावकरि जे पुद्गल ग्रहण कीये ते समय अधिक आवलीमात्र काल पीछे द्वितीयादिक समयविर्षे निर्जरारूप भये फेरि पहलै कह्या तिसही विधानकरि अगृहीत गृहीत मिश्र अनंतवार ग्रहण करते जब कोई समय ऐसा होय तामैं पहले समये तिसही जीव जैसे स्पर्शादिकके अविभागपरिच्छेदकी संख्या लीये तितनेही समयप्रवृद्ध में आय जाय तब तितनाही काल एककर्मद्रव्यपरिवर्तनका होय है । ऐसें द्रव्यपरिवर्तन कहिये । इहां गाथा उक्तं च है ताका अर्थ- इस पुद्गलपरिवर्तनरूप संसारविर्षे इस जीवनँ सर्वही पुद्गल निश्चयकरि अनंतवार अनुक्रमतें ग्रहण कार करि छोडै है। ___ आगें क्षेत्रपरिवर्तन कहिये हैं । कोई जीव सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तक सर्व जघन्य अवगाह नारूप प्रदेश शरीरकू पाइ इस लोकविर्षे मध्यके आठ प्रदेशनिकू अपने शरीरकै मध्यदेशकरि उपज्या। पीछे क्षद्रभवकी आय स्वासकै अठारहै भाग मया। वहरि सोही जीव तिसही अवगाह नाकरि फेरि उपजिकरि मवा। ऐसेही तीसरी वार चौथी वार इत्यादि अपने शरीरके घन अंगुलक असंख्यातवै भाग असंख्यात प्रदेश है तेतीही वार उपजवो कीया। बांचि में अन्य अवगाहना तथा अन्य क्षेत्रमें उपजवो कीया अनंतवार ते गिणिये नाही । बहुरि ऐसे एक एक प्रदेश वधता सर्वलो For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy