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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobetirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सर्वार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता । द्वितीय अध्याय ॥ पान २३१ ॥ कहि जे मोहकी सात प्रकृति तिनिका अत्यंत नाश होनेरौं क्षायिकसम्यक्त्व हो है । बहुरि चारित्रमोहके अत्यंत अभावतें क्षायिकचारित्र प्रकट हो है । ऐसें क्षायिकके नव भाव हैं । इहां प्रश्न, जो, क्षायिकका दानादिक भावकरि कीया अभयदानादिक है, तो सिद्धनिकैभी अभयदानादिकका प्रसंग आवै है। ताका उत्तर आचार्य कहै है, यह दोष इहां नाही आवै है । अरहंतनिकै शरीरनामा नामकर्म तथा तीर्थकरनामा नामकर्मका उदय पाइये है ताकी अपेक्षातें कहै है । बहुरि तिनि कर्मनिका अभावतें सिद्धनिकै इनिका प्रसंग नाही है । फेरी पूछै, जो, ऐसें है तो सिद्धनिकै इनि भावनिकी कैसे प्रवृत्ति है ? ताका उत्तर- परम उत्कृष्ट अनंतवीर्य अव्यावाधस्वरूपकरिही तिनिकी तहां प्रवृत्ति है । जैसैं केवलज्ञानरूपकरि अनंतवीर्यकी प्रवृत्ति हो है, तैसें यहुभी जाननां ॥ आगें, जो क्षायोपशमिक भाव अठारा भेदरूप कह्या ताका भेदनिका निरूपणकै अर्थि सूत्र कहै हैं । ॥ ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्तित्रिपञ्चभेदाः सम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ॥५॥ याका अर्थ- ज्ञान चारी भेद, अज्ञान तीन भेद, दर्शन तीन भेद, अंतरायका क्षयोपशमरूप लब्धि पांच भेद, ऐसे पंधरा तौ ये, बहुरि क्षायोपशमिकसम्यक्त्व क्षायोपशमिकचारित्र संयमासंयम | ऐसे तीन ये सब मिलि अगरह क्षायोपशमिकभाव हैं ॥ च्यारि बहुरि तीन बहुरि तीन बहुरि पंच For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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