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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ॥ सवार्थसिद्धिवचनिका पंडित जयचंदजीकृता ॥ द्वितीय अध्याय ॥ पान २३२ ॥ | ऐसै दंदवृत्तिकरि बहुरि ए हैं भेद जिनिके ऐसें भेदशब्दः वृत्ति करनी । यथाक्रमकी पूर्वसूत्रतें अनुवृत्ति लेणी । च्यारि आदि संख्या ज्ञानादिककै लगावणी । ऐसै च्यारि ज्ञान मति श्रुत अवधि मनःपर्यय। तीन अज्ञान कुमति कुश्रुत विभंग । तीन दर्शन चक्षु अचक्षु अवधि । पांच लब्धि दान लाभ भोग उपभोग वीर्य । ऐसे पंधेरै भये । तहां सर्वघातिस्पर्द्धकनिका तो उदयक्षयतें बहुरि तिनिहीका सत्तारूप उपशमतें बहुरि देशघातिस्पर्द्धक उदय होते क्षायोपशमिक भाव होय है । तहां ज्ञानादिककी प्रवृत्ति अपने आवरण तथा अंतरायके क्षयोपशमतें होय है । बहुरि सम्यक्त्व इहां वेदकसम्यक्त्व लेणा। यहु अनंतानुबंधी कषायका चतुष्कका तथा मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व इनि दोऊनिका उदयक्षयतें तथा सत्तारूप उपशमतें बहुरि सम्यक्त्वप्रकृतिके देशघातिस्पर्द्धकका उदय होतें जो तत्त्वार्थश्रद्धान हो है सो क्षायोपशमिकसम्यक्त्व है। बहुरि अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान इनि बारह कषायनिका उदयक्षयतें बहुरि सत्तारूप उपशमतें बहुरि संज्वलनकषायके चतुष्कर्म किसी एक कषायके देशघातिकस्पर्द्धकनिका उदय होते बहुरि हास्यादि नोकषायका यथासंभव उदय होते जो त्यागरूप आत्माका परिणाम होय सो क्षायोपशमिकचारित्र है । बहुरि अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यान कषायका | अष्टकका उदयक्षयतें बहुरि सत्तारूप उपशमतें बहुरि प्रत्याख्यानकषायका उदय होतें बहुरि संज्वलन atspxxtspiritsideresssertiliteritsareerthsditouritsab For Private and Personal Use Only
SR No.020662
Book TitleSarvarthsiddhi Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Pandit
PublisherKallappa Bharmappa Nitve
Publication Year1833
Total Pages824
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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